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यथासंभव आहिंसक हो, स्वावलम्बी हो, प्रत्यक्ष –परोक्ष रूप से अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचाने वाला अथवा स्वाधीनता का हस्तक्षेप करने वाला न हो। यदि उपर्युक्त मापदण्ड़ों की उपेक्षा की जायेगी तो शरीर अथवा मन का उपचार आत्मा को कर्म . बंधनों से जकड़ देगा, जिसका भविष्य में अधिक दुष्परिणाम भोगना पड़ेगा। ऐसा प्रयांस कर्जा चुकाने के लिये ऊँचे ब्याज पर कर्जा लेने के तुल्य होगा। नौकर को सेठ से अधिक महत्त्व देने के समान अविवेकपूर्ण होगा। अत: शरीर का उपचार करते समय आत्मा की उपेक्षा न हो इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिये। ऐसे ही उपचारों का संक्षिप्त सैद्धान्तिक विवरण और चन्द विधियाँ यहाँ बतलाई जा रही हैं
उपचार प्रारम्भ करने से पूर्व बाह्य शारीरिक संतुलन जैसे-पैरों, गर्दन, नाभि, मेरूदण्ड आदि का आवश्यक होता है। इन असंतुलनों को दूर किये बिना कोई भी उपचार स्थायी और प्रभावशाली नहीं हो सकता। तत्पश्चात् पूर्ण सजगता के साथ रोग का सही निदान आवश्यक है। जितना निदान आंशिक अथवा अधूरा होगा उतना ही उपचार भी अपूर्ण होगा जो भविष्य में अधिक हानिकारक हो सकता है। ऐसा उपचार मात्र रोग, दर्द, पीड़ा में तात्कालिक राहत दिला सकता है, पूर्ण रोग मुक्ति नहीं। निदान हेतु रोगी की सजगता, चिकित्सक से रोग के कारणों पर सम्यक् तर्क पूर्ण चर्चा आवश्यक है। क्योंकि आधुनिक चिकित्सक भी रोग में रोगी के मानसिक
और भावात्मक कारणों को समझने में असमर्थ होने के कारण उनकी पूर्ण उपेक्षा . • करते प्रायः पाये गये हैं।
क्या शरीर में अकेला रोग हो सकता है? - हमारे शरीर में प्रायः सैकड़ों रोग होते हैं। जिनकी उपस्थिति का हमें आभास तक नहीं होता है। हम तब तक रोग को रोग नहीं मानते,,जब तक उनके लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं हो जाते या हमे परेशान करने नहीं लग जाते अथवा रोग हमारी सहनशक्ति से परे नहीं होने लगता है। . . रोग के जो लक्षण बाह्य रूप से प्रकट होते हैं, अथवा पेथालोंजिकल टेस्टों एवं यंत्रों की पकड़ में आते हैं, वे लक्षण तो सामान्य ही होते है, जिनके आधार पर प्रायः रोगों का नामकरण किया जाता है। चिकित्सा पद्धतियों के अधिकांश चिकित्सक भी अपने सिद्धान्तों के अनुरूप निदान करने के स्थान पर उसी निदान को शत . प्रतिशत सही मान अपने अपने ढंग से उन रोगों का उपचार करते हैं। पुराने अनुभवी वैद्य रोगी की नाड़ी देख कर रोग का सही निदान करने में सक्षम थे। परन्तु आज 'आयुर्वेद में भी निदान का वह आधार गौण होता जा रहा है। इसी कारण उसका प्रभाव
भी दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है। ठीक उसी प्रकार एक्यूप्रेशर की सुजोक अथवा रिफ्लेक्सोलोजी के अनुसार हथेली और पगथली के जिन स्थानों पर दबाव देने से दर्द होता है, वे सारे स्थान शरीर में रोग के पारिवारिक सदस्य होते हैं, जितना अधि