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.. अपान वायु मुद्रा .
इस मुद्रा को मृत संजीवनी मुद्रा भी कहते हैं। तर्जनी को अंगुष्ठ के मूल से स्पर्श कर अंगूठे का अग्रभाग मध्यमा और अनामिका के ऊपरी पौर से स्पर्श करने व कनिष्ठिका को सीधी रखने से बनती है। इस मुद्रा से हृदयघात, हृदय रोग, हृदय की कमजोरी धड़कन, प्राण ऊर्जा की कमी, उच्च रक्त चाप, सिर दर्द; बेचैनी, पेट की गैस, घबराहट दूर होती है। दिल का दौरा पड़ने पर यह मुद्रा इंजेक्शन के समान तुरन्त प्रभाव दिखलाती है। हृदय के रोगियों को सीढ़िया चढ़ते समय यदि श्वांस फूलता हो तो सीढ़िया चढ़ने से पूर्व 10-15 मिनट इस मुद्रा को करने से श्वांस नहीं फूलता।
जलोदर नाशक मुद्रा ___ कनिष्ठिका को पहले अंगूठे की जड़ में लगा कर फिर अंगूठे से कनिष्ठिका को दबाने से जलोदर नाशक मुद्रा बनती है। इस मुद्रा से शरीर में जल की वृद्धि से होने वाले रोग ठीक होते हैं। शरीर के विजातीय द्रव्य बाहर निकलने लगते हैं, जिससे शरीर निर्मल बनता है पसीना आने लगता है, मूत्रावरोध ठीक होता है।
शंख मुद्रा बांयें हाथ के अंगूठे को दायें हाथ की मुट्ठी में बन्द कर बांयें हाथ की तर्जनी का दाहिने हाथ के अंगूठे से मिला, बाकी तीनों अंगुलियों को मुठ्ठी के ऊपरी रखने से शंख मुद्रा बनती है।
- इस.मुद्रा से वाणी संबंधी रोग जैसे तुतलाना, आवाज में भारीपन गले के रोग और थायराइड संबंधी रोगों में विशेष लाभ होता है। भूख अच्छी लगती है। , वजासन में बैठकर यह मुद्रा करने से अधिक प्रभावकारी हो जाती है। हृदय के पास इस मुद्रा को हथेलियाँ रख कर करने से हृदय रोग में शीघ्र लाभ होता है। रक्त चाप कम होने लगता है।
... लिंग मुद्रा दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फंसा कर दायें अंगूठे को ऊपर खड़ा रखने से यह मुद्रा बनती है। इस मुद्रा से शरीर में गर्मी बढ़ती है। मोटापा । कम होता है। कफ, नजला, जुकाम, खांसी, सर्दी संबंधी रोगों, फेंफड़ों के रोग, निम्न रक्त चाप आदि में कमी होती है। इस मुद्रा से शरीर में मौसम परिवर्तन से होने
वाले सर्दी जन्य रोगों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। . संयमित. नियमित, परिमित, स्व अनुशासित एंव स्वनियंत्रित स्वावलंबी और सात्विक
जीवन शैली ही स्वस्थ जीवन की प्राकृतिक विधि होती है। .
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