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से. अनामिका. पृथ्वी तत्त्व से, मध्यमा अग्नि तत्त्व से, तर्जनी वायु तत्व से और अंगूठा आकाश तत्त्व से। परन्तु बहुत से योगी अंगूठे को अग्नि और मध्यमा को आकाश तत्त्व का प्रतीक मानते हैं। परन्तु ऐसा इसलिए उचित नहीं लगता क्योंकि आकाश तत्त्व ही सभी तत्त्व को आश्रय देता है, उसके सहयोग के बिना किसी भी तत्त्व का अस्तित्त्व नहीं रहता। ठीक उसी प्रकार अंगूठे से ही अन्य सभी अंगुलियों का स्पर्श हो सकता है, मध्यमा से नहीं दूसरी बात मस्तिष्क में आकाश तत्त्व की प्रधानता होती है। अंगूठा मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करता है। एक्यूप्रेशर में मस्तिष्क के रोगों का उपचार अंगूठे से ही किया जाता है।
- मुद्रा विज्ञान के अनुसार हमारी अंगुलियाँ ऊर्जा का नियमित, स्रोत होने के साथ साथ एन्टीना का कार्य भी करती है। शरीर में पंच तत्त्व की घटत-बढ़त से व्याधियाँ होती हैं। अंगुलियों को मिलाने, दबाने, स्पर्श करने, मरोड़ने तथा विशेष आकृति कुछ समय तक बनाए रखने से तत्त्वों में परिवर्तन किया जा सकता है। उसका स्नायु मण्डल और यौगिक चक्रों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अंगुलियों को अनावश्यक मरोड़ने एवं चटखाने से शक्ति का अपव्यय होता है।
अंगूठे को तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका के मूल में लगाने से उस अंगुलि से सम्बन्धित तत्त्व की वृद्धि होती है। अंगुलियों के प्रथम पौर में स्पर्श
करने से तत्त्व सन्तुलित होता है तथा इन अंगुलियों को अंगूठे के मूल पर स्पर्श कर '. अंगूठे से दबाने से उस तत्त्व की कमी होती है। इस प्रकार विभिन्न मुद्राओं के माध्यम से पंच तत्त्वों को इच्छानुसार घटाया अथवा बढ़ाकर सन्तुलित किया जा सकता है।
मुद्राओं के सामान्य नियम ___ मुद्राओं का अभ्यास बालक, वृद्ध, स्त्री. पुरुष सभी कर सकते हैं। मुद्राओं को चलते-फिरते, सोते-जागते. उठते-बैठते जब चाहें कर सकते हैं। परन्तु शान्त एकान्त स्थान पर एकाग्रचित से मुद्राएँ करने पर विशेष लाभ होता है। अपनी-अपनी आवश्यकताओं के अनुसार सही मुद्राओं का अभ्यास करने से चमत्कारिक लाभ होता है। . नियमित और निश्चित् समय पर प्राणायाम के पश्चात् ध्यान के आसन में बैठ एकाग्र चित्त से दोनों हाथों में करने से तुरन्त लाभ होता है। कुछ विशेष मुद्राओं को छोड़ मुद्राएँ किसी भी अवस्था में की जा सकती है। रोग के समय लेटे-बैठे, चलते-फिरते अथवा बातचीत करते हुए मुद्राएँ की जा सकती हैं। अEि कांश मुद्राएं कम-से-कम एक घड़ी अर्थात् 48 मिनट लगातार करने चाहिए। जिससे उसका अपेक्षित लाभ प्राप्त हो सके।
रोग से सम्बन्धित मुद्राएँ रोग दूर होने के समय तक ही करनी चाहिए। परन्तु अन्य मुदाएँ स्वेच्दानुसार जितनी अधिक की जाती हैं, उतना अधिक लाभ मिलता है। रोग जितना पुराना होता है, उसके उपचार में उतना ही अधिक समय
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