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________________ द्वितीय अध्याय - - अथातो रक्तपित्तचिकित्सिंत व्याख्यास्यामः। ___इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।। . अर्थ : ज्वर चिकित्सा व्याख्यान के बाद रक्त पित्त चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे ऐसा आत्रेयदि महर्षियों ने कहा था। . . - रक्त-पित्त का साध्यासाध्य- ... ऊर्ध्वगं बलिनोऽवेगमेकदोषानुगं नवम्। रक्तपिक्तां सुखे काले साधयेन्निरूपद्रवम्।। अधोगं यापयेद्रवतं यच्च दोषद्वयानुगम्। शान्तं शान्तं पुन: कुप्यन्मार्गानमार्गान्तरं च यत् ।। अतिप्रवृत्तं मन्दाग्नेस्त्रिदोष द्विपथं त्यजेत्। अर्थ : बलवान व्यक्तियों के वेग रहित, एक दोष से उत्पन्न, नवीन तथा . उपद्रवरहित ऊर्ध्वग रक्तपित्त शीतकाल में साध्य होता है। अधोग तथा दो दोषों से उत्पन्न रक्त पित्त याप्य होता है और बार-बार शान्त होकर पुनः कुपित हो जाय तथा एक मार्ग से निकल कर दूसरे मार्ग से भी निकले (अर्थात् मुख से निकल कर नाक, कान आदि से निकले) वह याप्य होता है। मन्दाग्नि वाले व्यक्ति को तीनों दोषों के प्रकोप से ऊर्ध्वग तथा अधोग मार्ग से अधिक रक्त निकलता हो वह रक्तपित्त असाध्य होता है। रक्तपित की विशेष चिकित्साज्ञात्वा निदानमयनं मलावनुमलौ बलम्। .. देशकालाद्यवस्थां च रक्तपित्ते प्रयोजयेत्।। . लगंन बृहणं चादौ शोधनं शमनं तथा। . सन्तर्पणोत्थं बलिनो बहुदोषस्य साधयेत्।। उर्ध्वभागं विरेकेण वमनने त्वधोगतम्। शमनैबृंहणैश्चन्यल्लघंय' ह्यानवेक्ष्य च।। अर्थ : संतपंण से उत्पन्न बलवान तथा बहुत दोष वाले व्यक्ति के ऊर्ध्वग रक्त-पित्त को विरेचन से साध्य करे और आधो भाग से निकलने वाले रक्त-पित्त को वमन से साध्य करे। लंघन करने योग्य तथा वृहण करने योग्य देखकर दुर्बल रोगी के ऊध्वंग तथा अधोग रक्त-पित्त को शमन तथा वृंहण के द्वारा चिकित्सा करे। .. 40 .
SR No.009377
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 02 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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