SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रक्त पित्त में शमन तथा बृंहण चिकित्साऊर्ध्व प्रवृत्ते शमनौ रसौ तिक्तकषायको। उपवासश्च निःशुण्ठीषडगेदकपायिनः।। अधोगे रक्तपित्ते तु बृंहणो मधुरो रसः । ऊर्ध्वगे तर्पणं. योज्यं प्राक्च पेया त्वधोगते।। अर्थ : दुबर्ल व्यक्तियों के ऊर्ध्वगामी रक्त-पित्त में तिक्त तथा कषाय रस शमन करते हैं और उपवास तथा सोंठ निकाल कर षडग (नागर मोथा, खस, पित्त पापड़ा, रक्त चन्दन तथा सुगन्ध वाला) का पानी पिलाना रक्त पित्त को शमन करते हैं। दुर्बल व्यक्तियों के अधोग रक्त-पित्त में मधुर रस बृहण करता है। उर्ध्वग रक्तपित्त में पहले। तर्पण करना चाहिए और अधोग रक्त पित्त में पहले पेया देनी चाहिए। रक्तपित्त में रक्तवेग का धारण तथा अधारणअश्नतो बलिनोऽशुद्ध न धार्य तद्धि रोगकृत्। धारयेदन्यथा शीघ्रमग्निवच्छीघ्रकारि तत्।। अर्थ : भोजन करते हुए बलवान रोगी के अशुद्ध रक्त को पहले नहीं रोकना चाहिए। क्योंकि वह रोग को बढ़ाता है। उसके अतिरिक्त दुर्बल तथा भोजन करने वाले व्यक्तियों के रक्त को तत्काल रोकना चाहिए। क्योंकि वह अग्नि के समान शीघ्र ही मारक होता है। विश्लेषण : बलवान रक्तपित्त के रोगियों का रक्त अधोमार्ग या ऊर्ध्वमार्ग से निकलता हो तो तत्काल उसे नहीं रोकना चाहिए। किन्तु पित्त नाशक और पाचन औषध खिलाकर धीरे-धीरे रक्त को बन्द करना चाहिए क्योंकि रूका हुआ अशुद्ध रक्त अन्य रोगों को उत्पन्न करता है। उसका पाचन हो जाय तब किसी उपद्रव को न करते हुए शान्त होजाता है। दुर्बल व्यक्तियोंके तत्काल रक्त को बन्द करना चाहिए। पाचन करने में विलम्ब होता है और रक्त अधिक निकल जाने से रोगी की मृत्यु होती है। . . . रक्त पित्त में विरेचन योगत्रिवृच्छयामाकषा येणकल्केन च सशर्करम् । साधयेद्विधिवल्लेहं लिह्यात्पाणितलं ततः।। शिवृता त्रिफला श्यामा पिप्पली शर्करा मधु। मोदकः सन्निपातोर्ध्वरक्तशोफज्वरापहः।। त्रिवृत्समसिता तद्वत् पिप्पलीपादसंयुता। . अर्थ : उर्ध्वग रक्त पित्त में काले निशोथ के क्वाथ तथा कल्क में शक्कर मिलाकर अवलेह सिद्ध करे और एक कर्ष (10 ग्राम) की मात्रा में चठाये। अथवा 'निशोथ, त्रिफला, (हरे, बहेड़ा, आँवला) काला निशोथ तथा पीपर के चूर्ण का शक्कर तथा मधु मिला मोदक बनाये। यह सन्निपातज ऊर्ध्वग 41 . .
SR No.009377
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 02 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy