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________________ है उष्ण गुणों से अवरूद्ध कफ को और मेदा को नष्टकर देता है कफ और मे के नष्ट होने पर श्रोतो का मार्ग खुल जाते है फलस्वरूप धातुओं का गभनागम समूचित रूप में होकर सभी धातुओं की पुष्टि समान रूप से होने लगती है अ कफ मेदा के घटजाने से अतिस्थूल व्यक्तियों मे कृशता आ जाती है। जो व्यक्ति स्भाव से ही कृश है या स्वभाव से ही स्थूल है । व्यक्तियों के लिए यहाँ निर्देश नही किया गया है किन्तु सम शरीर वाले या यदि कृशता और ऊतिस्थूलता से पीडित हो उन व्यक्तियों के लिए यह निर्दे किया गया है। घ्त की अपेक्षा तेल का गुण शरीर स्वास्थ्य के लिए अधिक. मा गया है। पर मर्दन के लिए खाने के लिए नही जैसा किघृतात्दशगुणं तैलं मर्दने पनतु भोजने। इसी कारण अन्तः प्रयोग से तेल की वद्ध बिट्क्कहा गया है। सतिक्तोषणमैरण्डं तैलं स्वादु सरं गुरू । वर्मगुल्मानिलकफानुदरं विषमज्वरम्।। रूक्शोकौच कटीगृह्यकोष्ठपृष्ठाश्रयों जयेत्। तीक्ष्णोंष्ण पिच्छिलं विस्त्रं रक्तैण्डौद्गवंत्वति।। अर्थ : एरण्ड के तेल का गुण- एरण्ड का तेल कुछ तिक्त, उष्ण, मधुर, सा और गुरू होता है। वर्ध्य (अप्डकोष वृद्धि) गुल्म, वातकफ, उदररोग, विषमज को दूर करता है। तथा सभी प्रकार की शारीरिक वेदना और शोथ रोग दूर करता है। कटि गुह्य प्रदेश, आमाशय आदि कोष्ठाश्रित वात और पीठ अस्थियों में बढ़े हुए वायु को दूर करता है तथा रक्त एरण्ड का तेल आ रूप में तीक्ष्ण, उष्ण पिच्छिल और विस्त्र अर्थात् अप्रिय गन्ध वाला होता विश्लेषण : सामान्यतः सभी तेल वायुको दूर करते है विशेषकर तिलका ते तिलका तेल ही मुख्य है उसके बाद वायु को दूर करने में एरण्ड तेल का र है यद्यपि एरण्ड का तेल अधिक व्यवहार में नही आता पर वायु को दूर व में इसका स्थान तिल के तैल से पहले आता है। जैसा कि आमवात गर्जनछस्य शरीर बचारीणः। एकएव निहन्तायमेरण्ड स्नेहकेशरि।। बताया गया है। और प्रथम अध्याय में भी वातनाशक में तेल की प्रधानता बतायी है य शरीरजानां दोष्णां क्रमेण परमोषधम् । वस्तिविरेको वमन तथा तैलं धृतं मधु।। कटूष्णं सार्षपं तीक्ष्णं कफशुक्रानिलापहम् । . 78
SR No.009376
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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