________________
निकालना और आये हुए वेगों को रोकना यह दोनों कार्य सामान्यतः सभी रोगों के कारण होते हैं। विश्लेषण : मल मूत्रादि वेगों को रोकने से जिन-जिन रोगों की उत्पत्ति ऊपर बताये हैं वे ही रोग वेगों के रोकने से नही होते हैं किन्तु सभी प्रकार के वेग जबरदस्ती निकालने तथा रोकने से हो जाते हैं। क्योंकि इन दोनों क्रिया से वायु का प्रकोप होता है। कुपित हुआ वायु सभी प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है, वायु ही गतिशील है जब उसका प्रकोप हो जायेगा तो सप्त धातु तीन मल और तीन दोषों को दूषित करना है अतः प्रयत्नपूर्वक वेगों को रोकना या उसे निकालना दोनों क्रिया ही नही करना चाहिए।
निर्दिष्टं साधनं तत्र थूयिष्ठं ये तु तान् प्रति।
ततश्चानेकधा प्राय: पवनो यत्प्रकुप्यति।
अन्नपानौषधं तस्य युञजीतातोऽनुलोमनम् । अर्थ : वेग रोकने से उत्पन्न होने वाले सामान्यतः रोगों की चिकित्सा-वेगों को रोकने से जो रोग विशेष रूप से होते हैं उन रोगों का तथा उनकी चिकित्सा साथ में बतायी गयी है। वेगों के रोकने से वायु अनेक प्रकार से कुपित होता है अतः वायु को अनहलोम करने वाले अन्न पान और औषधि का प्रयोग करना चाहिए। विश्लेषण : वेगों को जबरदस्ती निकालने और वेगों को रोकने से वायु कुपित होता है अतः वायु का अनुलोमन जिस प्रकार हो वैसी क्रिया करनी चाहिए। किन्तु बलात् वेगों को रोकने से जो रोग होते हैं वही वेगों का धारण करने से नहीं उत्पन्न होते हैं किन्तु भिन्न-भिन्न रोग होते है। पर दोनों अवस्था में वायु ही कुपित होता है, अनुलोम का तात्पन वायु की अपने प्राकृतिक मार्ग में ले जाना है।
धारयेतु सदा देगान् हितैशी प्रेत्य चेह च।
लोभेष्यद्विषेमात्सर्यरागादीनां जितेन्द्रियः।। .: - यतेत च यथाकालं मलानां शोधनं प्रति।
अत्यर्थसनिचतास्ते हि क्रुद्धा:स्युर्जीवितच्छिदः।। अर्थ : धारणी वेग-ऊपर अधारणीय वेगों का निरूपण किया गया है अब यहां धारणीय वेगों का वर्णन किया जा रहा है, सर्वदा इस लोक में और मरने के बाद भलाई चाहने वाला जितेन्द्रिय व्यक्ति लोभ, ईर्ष्या (दूसरे के उत्कर्ष को न सहना) द्वेष (दूसरे व्यक्ति का अपकार करने की इच्छा) मात्सर्य (दूसरे के गुणों को देखकर उसका सहन न करना) और रोग आदि कारणों से उत्पन्न वेग को धारण करना चाहिये। इस प्रकार 5 वेगों को नाम लिखकर आदि शब्द से हानिकर आये हुए शारीरिक एवं मानसिक वेगों का ग्रहण किया जाता है।
हितैषी मनुष्य के कर्तव्य का उल्लेख- शरीर में मलों अर्थात् वात,