SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाला जो अभिष्यन्दी नहीं है और रूक्ष भी नहीं है जो पीने में अमृत के सर लाभकर है ऐसे जल का सेवन करना चाहिये, इस काल में चन्दन, खस, के का शरीर में लेप, मोती एवं फूलों की माला श्वेतवस्त्र का धारण का चाहिए। रात्री के प्रथम पहर में चूना लगाने से सफेद और चन्द्रमा की कि जहाँ चमक रही हों ऐसे कोठे के ऊपर बैठना चाहिए। तुषारक्षारसौहित्यदघितैलवसाऽऽतपान्।। तीक्षरगमद्यदिवास्वप्नपुरोवातान् परित्यजेत् । अर्थ : शरद ऋतु में वर्जनीय आहार विहार-इस काल में तुषार (वर्षा के फु या ओस) क्षार सौहित्य (अधिक भोजन) दधि, तैल, वसा, धूप, तिक्ष्ण, दिन शयन और पूर्वी हवा का सेवन नहीं करना चाहिये। विश्लेषण : गर्मी के दिनों में में फागुन चैत्र से ही सूर्य का ताप शरीर में ल है और वह धीरे-धीरे जेठ मास तक लगता रहता है इसलिए धूप सहने शक्ति अभ्यास के द्वारा हो जाती है इसलिए सूर्य संताप अधिक कष्ठदायी होता है। शरद् ऋतु में आकाश के स्वच्छ रहने पर जब सूर्य की किरणें रहती है तो शीत वातावरण में रहने वाला मानव सहसा तिलमिला जार और वर्षा के अभाव में गरम वातावरण में संचित पित्त प्रकृपित हो जाता इसलिए पित्त को दूर करने के लिए धी का सेवन आवश्यक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को विरेचन लेकर पित्त का निर्हरण करा देना चाहिए। हल्का सामान्य भोजन करना चाहिए किन्तु इस काल में अधिक भोजन तेल दिन में शयन पूर्वी हवा और धूप का त्याग करना चाहिए। वर्षा । बीतने पर भी जल गंदा ही मिलता है इसलिए जिस जल में चन्द्रमा और की किरणें अबाध रूप से पड़ती हों उस जल का सेवन करना चा अगस्त्य उदय का तात्पर्य अगस्त नामक तारा से हैं इस तारा के उदय पर पृथ्वी के कीचड़ आदि का शोषण हो जाता है। और इस प्रकार के का नाम हंसोदक कहा जाता हैं जो सभी प्रकार से लाभकर होता है। ऋतु में दिन में शयन और पूर्वी हवा का सेवन सर्वथा नहीं करना चा __ इस प्रकार यहां 6 ऋतुओं का वर्णन किया गया है, संक्षे ऋतुचर्या समझने के लिए इसका दो भाग किया गया 1-आदान 2--विसर्ग-इसे समझने के लिए निम्न आधार उत्तम होगा। 38
SR No.009376
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy