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16. तेजोमय शरीर प्राण शरीर/विद्युत शरीर। . . 17. कार्मण शरीर आत्मा को कर्मों से आच्छादित करने वाला शरीर। 18. लेश्या आत्मा पर आई चिकनाहट (शुभाशुभ भाव) जो . ..
कर्मों को आत्मा से चिपकाती है। 19. मिथ्यात्व असत्य अथवा अधूरे सत्य को पूर्ण सत्य मानना। .
• आत्मा के अस्तित्व पर श्रद्धा न होना। 20. कषाय आत्मा को कलुषित करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष की वृत्तियाँ। 21. प्रमाद - आत्म विकास के प्रति असजगता/ उपेक्षावृत्ति। 22. अव्रत दृढ़ संकल्प शक्ति का अभाव। मन एवं भावों की अस्वच्छ अवस्था। .
आत्मा ही स्वास्थ्य का मूलाधार - स्वास्थ्य विज्ञान का मूलाधार आत्मा है। प्रत्येक जीव जीना चाहता है, मरना कोई नहीं चाहता। प्रत्येक जीव स्वाधीन, स्वतंत्र रहना चाहता है। पराधीनता, , परावलम्बन और बन्धन उसे पसन्द नहीं। तीसरी बात प्रत्येक जीव शान्त, सुखी और स्वस्थ रहना चाहता है। संसार का यह सनातन सिद्धान्त है। जितना-जितना इन सनातन नियमों के पालन में सद् आचरण, सम्यक् चिन्तन द्वारा प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से सहयोग किया जाएगा उतना--उतना पुण्य अथवा शुभ कर्मों का उपार्जन होगा। इसके विपरीत इन सिद्धान्तों की पालना में जितना जितना व्यवधान डाला जाएगा, .. अवरोध पैदो किया जाएगा, उतना-उतना अशुभ कर्मों का या पाप का उपार्जन होता जाएगा। जो पाप से डरेगा, वह पाप के कार्यों से बचेगा। अतः हमारा जीवन पाप और पुण्य, शुभ और अशुभ कर्मों से प्रभावित होता है। जब जीवन में पाप का पलड़ा भारी हो जाता है अथवा अशुभ कर्मों का उदय होता है तो हमारे प्रतिकूल .. परिस्थितियाँ, वियोग, दुःख, पीड़ा, तनाव, रोग आदि के प्रसंग बनते हैं। अतः स्वस्थ रहने के लिए अशुभ कर्म के बन्धनों के कारणों को समझ उनसे बचने का यथा सम्भव प्रयास करना चाहिए। .......: आत्मा का अस्तित्त्व
आत्मा अरूपी है। वर्ण, गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श रहित है। अतः इन्द्रियों के . द्वारा उसकी क्षमताओं का पूर्ण ज्ञान नहीं किया जा सकता। इन्द्रिय ज्ञान का विषय .. केवल दृश्य-जगत तक ही सीमित होता है। इसी कारण इन्द्रिय ज्ञान को ही सब कुछ मानने वाले आत्मा के अस्तित्त्व को नहीं मानते। इन्द्रिय ज्ञान पौद्गलिक (भौतिक/जड़) साधनों की अपेक्षा रखता है। साधन जितने शक्तिशाली होंगे, अच्छे और प्रबल होंगे, ज्ञानं उतना ही स्पष्ट होगा। जिन दूरस्थ सूक्ष्म पदार्थों को हम साध
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