SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ झुर्रिया पड़ जाएँ, इन्द्रिया, मन, अंग, उपांग अशक्त हो जाएँ, बालक में चंचलता न हो, युवावस्था में जोश न हो, उत्साह न हो, बचपन में भी स्मरण शक्ति अच्छी न हो आदि सभी कारण शरीर की विभाव दशा होने के परिणामस्वरूप रोग के कारक बनते हैं। शरीर का गुण है कि जो अंग और उपांग शरीर के जिस स्थान पर स्थित हैं, उनको वहीं स्थित रखना यथा हलन चलन के बावजूद आगे-पीछे न होने देना, शरीर में विकार उत्पन्न होने पर उसको दूर करना और पुनः अच्छा करना । अनावश्यक, अनुपयोगी, विजातीय तत्त्वों का विसर्जन करना । यदि कोई हड्डी टूट. जाए तो उसे पुनः त्वचा का आवरण लगाना । रक्त बहने अथवा रक्त दान आदि . से शरीर में जो रक्त की कमी हो गई हो तो उसकी पूर्ति करना । उपर्युक्त एवं ऐसे . अनेक कार्य शरीर के गुण एवं स्वभाव हैं परन्तु यदि किसी कारणवश शरीर इन कार्यों को बराबर न करे तो यह उसकी विभाव दशा है अर्थात् रोगों का प्रतीक है। शरीर विभिन्न तंत्रों का समूह है। जैसे ज्ञान तंत्र, नाड़ी तंत्र, श्वसन, अस्थि, मज्जा, लसिका, प्रजनन, विसर्जन आदि। शरीर में पीयूष, पिनियल, थायरॉइड़ और पैराथायरॉइड, एड्रीनल, पेन्क्रियाज थाइमस, प्रजनन आदि अन्तःस्रावी ग्रन्थियां प्रशासक के रूप में कार्य करती हैं। सभी आपसी सहयोग, समन्वय, तालमेल, अनुशासन से अपना कार्य स्वयं ही करते हैं, क्योंकि ये चेतनाशील मानव के लक्षण और स्वभाव हैं । परन्तु यदि किसी कारणवश कोई भी तन्त्र शिथिल अथवा निष्क्रिय हो जाता है, अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ असक्रिय अथवा अतिसक्रिय हो जाती हैं तथा उनके कार्यों को • संचालित और नियंत्रित करने के लिए बाह्यय सहयोग या आलम्बन लेना पड़े तो यह शरीर की विभाव दशा है, अतः ये रोग का सूचक हैं। आत्मा की विभाव दशा रोग का सूचक अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह, आत्मा की विभावदशा हैं। जो कर्मों के आवरण से स्वविवेक और अपना भान नहीं होने देतीं। अतः ये आत्मा के रोग हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, वीतरागता शुद्धात्मा के लक्षण हैं। यही अवस्था निरोगी आत्मा की प्रतीक होती है। जैसे कोई व्यक्ति केवल झूठ बोलकर ही अपना कार्य चलाना चाहे, तो उसे सत्य बोलना ही पड़ेगा, क्योंकि झूठ बोलना उसका स्वभाव . नहीं है। व्यक्ति छोटा हो अथवा बड़ा, अपने स्वभाव में बिना किसी परेशानी, प्रायः 1. सदैव रह सकता है। बाह्यय आलम्बनों का जितना-जितना सहयोग लेगा, वह उसकी विभावदशा अथवा रोग की दशा होगी। जितना - जितना अपने स्वभाव को विकसित करेगा, व्यक्ति स्वास्थ्य के समीप होता जाएगा। अपने आपको स्वस्थ और निरोग रखने की भावना रखने वालों को इस तथ्य, सत्य का चिन्तन कर अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए । 29
SR No.009375
Book TitleSwadeshi Chikitsa Aapka Swasthya Aapke Hath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChanchalmal Choradiya
PublisherSwaraj Prakashan Samuh
Publication Year2004
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy