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रोगों के प्रकार रोगों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। 1) उत्तेजक 2) शान्त।
उत्तेजक रोग . ऐसे रोग जिनकी तरफ हमारा ध्यान शीघ्र जाता है। वे हमारी सहनशीलता ... को प्रभावित करते हैं और वाणी द्वारा उससे पड़ने वाले प्रभावों की अभिव्यक्ति पहले होती है। जैसे दर्द, चक्कर, बैचेनी, उल्टी, दस्त, पसीना आदि। ऐसे रोगों का प्रायः समय पर उपचार हो जाता है, अतः अपेक्षाकृत कम हानिकारक होते हैं। शान्त रोग
. . - ऐसे रोग जिसकी तरफ रोगी का ध्यान तुरन्त नहीं जाता और न रोगी के लिए असहनीय ही होता है। जिनका सम्बन्ध.प्रायः शारीरिक, मानसिक और आत्मिक क्षमताओं के अभाव से होता है। जैसे आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों का पूर्ण विकसित न होना, शारीरिक अवयवों के अनुपात में असन्तुलन अथवा उनमें रासायनिक परिवर्तनों से विकारों का उत्पन्न होना इत्यादि। ऐसे रोगों की उपेक्षा के कारण ही भविष्य में असाध्य रोगों के होने की सम्भावना होती है; अत: ये ज्यादा ‘खतरनाक होते हैं। अधिकांश आत्मिक और मानसिक विकारों से सम्बन्धित होने वाले . रोग तथा शरीर में अभिव्यक्त न होने वाले प्रत्यक्ष अथवा सहयोगी रोग इसी श्रेणी में आते हैं, जिन्हें हम रोग के रूप में स्वीकार नहीं करते। .: विकार रोग का सूचक है .
__स्वास्थ्य का अर्थ है--विकार मुक्त अवस्था। रोग का तात्पर्य विकारयुक्त अवस्था यानी "जितने ज्यादा विकार उतने ज्यादा रोग। जितने विकार कम उतना ही स्वास्थ्य अच्छा। विकार का मतलब अनुपयोगी, अनावश्यक, व्यर्थ, विजातीय तत्त्वं हैं। जब ये विकार शरीर में होते हैं तो शरीरं रोगी बन जाता है। परन्तु जब ये विकार मन, भावों और आत्मा में होते हैं तो क्रमशः मन, भाव और आत्मा विकारी अथवा . . अस्वस्थ कहलाती है। विकारी अवस्था का मतलब है विभाव दशा अथवा विपरीत स्थिति। जितने-जितने विकार उतनी-उतनी विभाव दशा। .
शारीरिक विकार के प्रभाव से शरीर के अंग, उपांग, अवयव, ग्रन्थियाँ, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ आदि अपने निर्धारित कार्य करने हेतु असजग, असन्तुलित, अथवा निष्क्रिय होने लगती हैं जिससे शरीर में अनुपयोगी, अनावश्यक, विजातीय तत्व जमा होने लगते हैं। परिणामस्वरूप शरीर की स्वचालित स्वनियंत्रित प्रक्रिया में अवरोध और असन्तुलन होने लगता है। जो जनसाधारण की भाषा में रोग कहलाता है। फलतः शरीर में दर्द, पीड़ा, बेचैनी, तनाव, चिड़चिड़ापन, भय, अधीरता.... निष्क्रियता,
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