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जीवन अनमोल है, अतः उसका दुरूपयोग न करें। वर्तमान की उपेक्षा भविष्य में परेशानी का करण बन सकती है। वास्तव में हमारे अज्ञान, अविवेक, असंयमित, अनियंत्रित, अप्राकृतिक जीवन चर्या के कारणं जब शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता से अधिक शरीर में अनुपयोगी, विजातीय तत्त्व और विकार पैदा होते हैं तो शारीरिक क्रियाएँ पूर्ण क्षमता से नहीं हो पातीं, जिससे धीरे-धीरे रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। अनेक रोगों की उत्पत्ति के पश्चात् ही कोई रोग हमें परेशान करने की । स्थिति में आता है। उसके लक्षण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट होने लगते हैं। शरीर .. में अनेक रोग होते हुए भी किसी एक रोग की. प्रमुखता हो सकती है। अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँ, उसके आधार पर रोग का नामकरण, निदान और उपचार करती हैं। प्रायः रोग के अप्रत्यक्ष और सहयोगी कारणों की उपेक्षा के कारण उपचार आंशिक एवं अधूरा ही होता है। सही निदान के अभाव में उपचार हेतु किया . गया प्रयास लकड़ी जलाकर रसोई बनाने के बजाय मात्र धुंआ करने के समान होता . है। जो भविष्य में असाध्य रोगों के रूप में प्रकट होकर अधिक कष्ट, दुःख और परेशानी का कारण बन सकते हैं।
चिकित्सा पद्धति की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता होती है, उसकी प्रभावशीलता, तुरन्त राहत पहुंचाने की क्षमता तथा दुष्प्रभावों से रहित स्थायी रोग मुक्ति। इन मापदण्डों को जो चिकित्सा पद्धतियाँ पूर्ण नहीं करतीं, वे चाहे जितने विज्ञापन एवं प्रचार-प्रसार द्वारा दावे करें, जनसाधारण को मान्य नहीं हो सकती। जिस प्रकार पानी पीने से प्यास शान्त होने लगती है। खाना, खांना प्रारम्भ करते . ही भूख कम होने लगती है। उसी प्रकारः उपचार प्रारम्भ करते ही परिणाम आने चाहिए। उपचार तो चन्द दिनों का आलम्बन तक ही सीमित होना चाहिए। जहाँ दवा जीवन की आवश्यकता बन जाए ऐसा उपचार और निदान सही नहीं हो सकता।
। दुर्भाग्य तो इस बात का है कि स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्राय: व्यक्ति . आत्म-विश्लेषण नहीं करता। गलती स्वयं करता है और दोष दूसरों को देता है। रोग का समाधान स्वयं के पास है और ढूँढता हैं डाक्टर और दवाइयों में, परिणामस्वरूप समस्याएँ सुलझने की बजाय उलझने लगती हैं। रोग से उत्पन्न दर्द, पीड़ा, कष्ट एवं संवेदनाओं की जितनी अनुभूति स्वयं रोगी को होती है, उतनी सही स्थिति कोई भी यंत्र और रासायनिक परीक्षणों द्वारा मालूम नहीं की जा सकती। दवा और डाक्टर तो उपचार में मात्र सहयोगी की भूमिका निभाते हैं, उपचार तो शरीर के द्वारा ही होता है। अतः जो चिकित्सा.जितनी ज्यादा स्वावलम्बी होगी, रोगी की उसमें उतनी ही अधिक सजगता, भागीदारी एवं सम्यक् पुरूषार्थ होने से प्रभावशाली. होगी। .. .
- विज्ञापन और भोगवादी मायावी युग में स्वार्थी मनोवृत्ति के परिणामस्वरूप .. तथा जनसाधारण की असजगता, उदासीनता एवं सम्यक् चिन्तन के अभाव के कारण ।