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तो उन्हें दिल्ली ले जाने की तैयारी कर रहा हूँ वहाँ भी डाक्टरों से सम्पर्क चालू है। जैसे ही कुछ होगा मैं तुरन्त बताऊँगा।
इसके बाद ड्राइवर ने चाय पीकर दुबारा से गाड़ी चालू की और मैं भिलाई में फोन पर सम्पर्क करने की कोशिश करता रहा। अनूप भाई से बात हुई तो उन्होंने कहा कि आप जल्दी से जल्दी आईये समय बहुत कम है, तब मैंने उनसे कहा कि दिल्ली ले जाने की बात हो रही हैआपदिल्ली लेकर निकलिए, तो उन्होंने कहा कि उनकी हालात ऐसी नहीं है कि दिल्ली ले जाया जा सके। आप तो जल्दी से जल्दी पहुँच जाईये। तब मुझे थोड़ा शक हुआ कि अभी तक मेरी बात नहीं हो पाई राजीव भाई से, चक्कर क्या है। राजीव भाई स्वामी जी से बात कर रहे है तो मुझसे क्यों नहीं कर पा रहे हैया उनके आसपास के लोग मुझे बात क्यों नहीं करवा रहे हैं।
करीब 12:15 पर स्वामी जी का फिर से फोन आया उन्होंने तुरन्त गाड़ी रोकने के लिए कहा, और फूट फूटकर रोने लगे, लगातार 5-6 मिनट तक रोते रहे। मैं भी उनके साथ रोता रहा। मैं आवाक होकर सुनता रहा। शुरू में मेरी समझ में कुछ नहीं आया, जब थोड़ा सांस मिली तो स्वामी जी ने कहा कि, अब कुछ नहीं बचा, राजीव भाई हमको छोड़कर चले गये.....मैंने क्या-क्या नहीं सोचा था, सब कुछ खत्म हो गया, मेरे हाथ पैरों में ताकत ही नहीं बची है। मैंने अपने आपको संभालते हुए स्वामी जी से एकही प्रार्थना की कि स्वामी जी राजीव भाई के सपने को अधा नहीं छोड़ना है, किसी भी कीमत पर पूरा करना है। 'भारत स्वाभिमान' के रूप में उन्होंने जो सपना देखा है वह पूरा होना चाहिए आप किसी भी कीमत पर यह लड़ाई नहीं रूकने देना.... फिर उन्होंने पूछा कि आगे क्या करना है तो मैंने उनको कहा कि राजीव भाई वैधनिक रूप से भारत स्वाभिमान के राष्ट्रीय सचिव थे इसलिए उनका अंतिम संस्कार भारत स्वाभिमान के मुख्य कार्यालय, हरिद्वार में ही होना चाहिए, आप तैयारी करवाईये मैं उन्हेंलेकर आता हूँ। उसके बाद स्वामी जी का फोन कट गया,फोन पर बात करते-करते उनकी आवाज एकदम निढाल हो गई थी। मैं भी सुन्न हो गया था कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था क्या करू, शरीर और दिमाग दोनों को जैसे लकवा मार गया हो। काठ जैसा हो गया था।
मैंने जब से होश संभला था तब से राजीव भाई को सिर्फ भाई ही नहीं, माँ-बाप मानकर, उनके साथ और उनके सानिध्य में था। अब वो छोड़कर चले गये तो कैसे आगे बढ़ेगें। उनकी हिम्मत से हम हिम्मत पाते थे, उनके जोश से हमें जोश मिलता था, उनकी निडरता से हमें निडरता मिलती थी,जब वो दहाड़ लगाकर विदेशी कम्पनियों के खिलापफ बोलते थे तब हमारे अन्दर हौसला पैदा होता था। अब कहाँ से यह सब
___ स्वदेशी कृषि