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________________ अर्थात् अधर्म में धर्म संज्ञा, धर्म में अधर्म संज्ञा, अमार्ग में मार्ग संज्ञा, मार्ग में अमार्ग संज्ञा, अजीव में जीव संज्ञा, जीव में अजीव संज्ञा, असाधु में साधु संज्ञा, साधु में असाधु संज्ञा, अयुक्त में युक्त संज्ञा तथा युक्त में अयुक्त संज्ञा होती है। मोक्षशास्त्र में मिथ्यात्व के पाँच प्रकार बताये हैं- अभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, अभिनिवेशक, सांशायिक और अनाभोगिक में से प्रथम 4 व्यक्त मिथ्यात्व के स्वरूप हैं। अव्यक्त मिथ्यात्व- अव्यक्त मिथ्यात्व से संदर्भित विधान है कि अव्यवहार राशि वाले जीव सदा काल मिथ्यात्व मूर्छा में रहते हैं। श्रीमद हरिभद्रसूरी जी ने “योगदृष्टि समुच्चय" में 8 योगदृष्टिओं का वर्णन किया है जिसमें से प्रथम 4 में मिथ्यात्व गुणस्थान घट सकता है। यहाँ मोहनीय कर्म के दो भेद कहे गये हैं - (अ) दर्शन मोहनीय (आ) चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के ये तीन - समकित मोहनीय, मिश्रमोहनीय व मिथ्यात्व मोहनीय भेद कहे गये हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान के उत्तरार्द्ध में सम्यग्दृष्टि जीव को संसार से मुक्त होने की तीव्र इच्छा होती है सांसारिक सुख बंधन रूप लगते हैं किन्तु अप्रत्याख्यानीय कषायों के तीव्र उदय के चलते वह ऐसा कर पाने में असमर्थ है। व्रत न ले सकने का उसे तीव्र दुख रहता है। काया से पाप प्रवृत्ति होने पर उसे हृदय में तीव्र डंख रहता है। अनुत्तर विमान की आयु 33 सागरोपम है उसमें आगामी भव की मनुष्य आयु जोड़ देने पर इस गुणस्थान की उत्कृष्ट आयु आ जाती है। 2- सास्वादन गणस्थान में कर्म सिद्धान्त जब जीव चतुर्थ गुणस्थान से गिरकर प्रथम गुणस्थान तक पतित होकर गिरता है तो उसके मध्य का संक्रमण काल दूसरा तीसरा गुणस्थान है। इस गुणस्थान में 16 कर्म प्रकृतियां मिथ्यात्व मोह के उदय से ही बँधती हैं- (नरक त्रिक-नरकायु, नरक गति, नरकानुपूर्वी, जाति चतुष्क, स्थावर चतुष्क,- स्थावर सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण नामकर्म, हुण्डक संस्थान, आतप नामकर्म, सेवार्त संहनन, नपुसंकवेद और मिथ्यात्व मोह) का बंध नही होता अतः 101 कर्म प्रकृतियों का ही बंध होता है। यहाँ तीर्थंकर नामकर्म को छोड़कर शेष 147 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इसमें 111 कर्म प्रकृतियों (मिथ्यात्व मोह, मिश्र मोह, सम्यक्त्व मोह, तीर्थंकर नामकर्म, आहारकविक, सूक्ष्म शरीर, अपर्याप्त अवस्था, साधारण शरीर, आतप नामकर्म तथा नरकानुपूर्वी इन 11 कर्म प्रकृतियों को छोड़कर) के उदय की सम्भावना रहती है। 3- मिश्र गुणस्थान एवं कर्म सिद्धांतइस गुणस्थान में सास्वादन गुणस्थान की 101 कर्म प्रकृतियों में से 74 कर्म प्रकृतियों(तिर्यग्चरित्र, स्थानवृद्धित्रिक - स्त्यानग्रद्धि, प्रचला और प्रचला- प्रचला, दुर्भग नाम कर्म, दुस्वर नामकर्म, अनादेय नाम कर्म, अनन्तानबंन्धी कषाय चतष्क, मध्यम संस्थान चतुष्क, महायम संहनन चतुष्क, नीच गोत्र, उधोतन नामकर्म, अशुभविहायोगति तथा स्त्री वेद -27) का ही बंध सम्भव है। सत्ता की अपेक्षा से तीर्थंकर नामकर्म को छोड़कर 147 कर्म प्रकृतियां हैं तथा उदय योग्य 122 कर्म प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी कषाय , स्थावर नामकर्म, एकेन्द्रिय नाम कर्म, तीन विकलेन्द्रिय नामकर्म का छेद तथा तिर्यञ्च, मनुष्य और देवानुपूर्वी का अनुदय एवं मिश्र मोह का उदय होने से इन 111 कर्म प्रकृतियों के उदय की संभावना रहती है। 88
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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