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________________ (इ) अवमान प्रमाप- इनमें भूमि आदि को मापने के प्रमाप सम्मिलित हैं। दण्ड(खेतादि का मापन), धनुष(मार्ग का मापन), नलिका(कुआ व खाई का मापन), अक्ष व मूसल ये सभी चार हाथ परिमाण हैं। 10 नलिका = 40 हाथ = 1 रज्जू। 1 किष्क = 2 हाथ। 6 अंगुल = 1 पाद, 2 पाद = 1 वितस्ति(बलिश्त), 2 वितस्ति = 1 हाथ, 2 हाथ = 1 किष्क, 2 किष्क= 1दण्ड, 2 हजार धनुष = 1 कोस, 4 कोस = 1 योजन। (ई) गणिम प्रमाप- जिसकी गणना की जाय उसे गणना कहते हैं। जैन परम्परा में गणनीय संख्या 194 अंक अर्थात् 1 पर 193 शून्य परिमाण है। (उ) प्रतिमान- इसके द्वारा बहुमूल्य वस्तुओं को तौला जाता है। ये माप हैं- गुजा(रत्ती), काकणी, निष्पाव, कर्ममाषक, मण्डलक व सुवर्ण। 5 रत्ती = 4 काकणीयां, 3 निष्पाक= 1 कर्ममाषक, 12 कर्ममाषक या 48 काकणियां = 1 मण्डलक, 16 कर्ममाषक या 64 काकणियों का एक कर्ममाषक होता है। क्षेत्र परिमाणइनके दो प्रमुख भेद हैं- विभाग निष्पन्न व प्रदेशावगाह निष्पन्न। एक प्रदेशावगाह, दो प्रदेशावगाह, यावत् संख्यात प्रदेशावगाह, असंख्यात प्रदेशावगाह ये प्रदेश अवगाह निष्पन्न प्रमाप हैं। विभाग निष्पन्न प्रमापों में अंगुल(उत्सेधांगुल-नरकादि चतिर्गति जीवों की ऊँचाई के निर्धारण हेतु), क्षेत्र-प्रमाण प्रमाणांगुल(इससे द्वीप, समुद्र व भवनवासी आदि को मापा जाताहै) व आत्मांगुल- स्वयं की अंगुली, इससे घर आदि को मापा जाताहै।), वितस्ति, हाथ, कुक्षी, धनुष, गाउ, श्रेणी, प्रवर लोक व अलोक शामिल हैं। परमाणु, त्रसरेणु(पूर्व दिशा की वायु से प्रेरित होकर उड़ने वाले कण), रथरेणु (रथ की धूल से उड़ने वाले कण), बालाग्र(अग्रभाग), लीख, जूं व जव क्रमशः एक दूसरे से 8 गुणा बड़े हैं। 8 बालाग्र = 1 लीख, 8 लीख = 1 जूं तथा 8 जूं = 1 जव(धान्य विशेष) होता है। 8जव = 1 अंगुल, 6अंगुल = 1 पाद, 2 पाद = 1बेंत (वितस्ति) = 1 हाथ होता है। 4 हाथ का = 1 धनुष, 2 हजार हाथ = 1 गाऊ(कोस) तथा 4 गाऊ = 1 योजन परिमाप होता है। योजन को असंख्यात से गणा करने पर 1 श्रेणी प्राप्त होती है और उसको असंख्यात से गुणा करने पर एक प्रतर तथा एक प्रतर को असंख्यात से गुणा करने पर लोक परिमाण बनता है। लोक को अनन्त से गुणा करने पर अलोक बनता है। उत्तम पुरुष 108 अंगुल प्रमाण, मध्यम पुरुष 104 अंगुल प्रमाण तथा अधम पुरुष 96 अंगुल प्रमाण वाले होते हैं। काल परिमाणसामान्यतः काल के कोई भेद नहीं हैं फिर भी लोक व्यवहार में समय अवलिका, घड़ी प्रहर, दिन, मास, वर्ष या भूत भविष्य व वर्तमान काल आदि भेद कहे हैं। काल के अत्यन्त सूक्ष्म और अविभाज्य भाग को समय कहते हैं। असंख्यात समय की एक अवलिका तथा असंख्यात अवलिका का एक श्वासोच्छवास होता है। एक स्वस्थ युवा मनुष्य के(स्वाभाविक तौर पर) एक उच्छवास व निश्वास के काल को प्राण कहते हैं। सात प्राणों का एक स्तोक होता है तथा सात स्तोक का एक लव। साड़े अड़तीस लव की एक नड़िका(नलिका), दो नलिका अर्थात् 77 80
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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