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अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय और चारित्र का धारण करना ज्ञान का कार्य है। ज्ञान अर्थात् जानना। ज्ञान के दो प्रकार हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष | मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यय एवं केवलज्ञान ये ज्ञान के पाँच भेदों में से प्रथम दो परोक्ष व अंतिम तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। मति अज्ञान, श्रुति अज्ञान एवं विभंग ज्ञान इन तीन ज्ञानों की सत्ता मिथ्यादृष्टि व सास्वादन गुणस्थान में रहती है। तृतीय मिश्र गुणस्थान में इन तीनों का समुच्चय देखने को मिलता है। सम्यक्त्व गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुति व अवधि तीनों की संभावना रहती है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुति, अवधि व मनः पर्यय इन 4 की संभावना रहती है। सयोग केवली व अयोग केवली के सिर्फ केवलज्ञान होता है। मनः पर्यय ज्ञान मनष्यों में सम्यकदृष्टि छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के ही होता है। इसके दो भेद हैं- ऋजुमती व विपुलमती। विपुलमती ज्ञान केवलज्ञान होने तक नहीं छूटता। केवलज्ञान के बाद मति श्रुति आदि कोई भेद नहीं रह जाता। भाग्यानुकूल होने पर, कालाब्धि मिलने पर सागर रूपी संसार का तट पास में आ जाने पर तथा भव्त्व भाव पक जाने पर जीव को सम्यक्त्व होता है। (8) संयम मार्गणा
अजया अविरयसम्मा देसे विरया य हुंतिसहाणे।
सामाइयछेयपरिहारसुहुमअहक्खाइणो विरया।।66||जीवसमास सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहाविशुद्धि ,सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्याति(5) ये संयम अर्थात् चारित्र के भेद कहे गये हैं। चारित्र विकास की ये प्रमुख अवस्थाएं हैं- अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान तक सम्यकचारित्र नहीं होता है। - प्रथम से सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक- चारित्र का अभाव होता है। - देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक- आशिंक सम्यग्चारित्र सदभाव की परिणति होती हैं। - प्रमत्तसंयत से अनिवृत्ति बादर गुणस्थान तक- समायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र पाया जाता है। - अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही- परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। - सूक्ष्मसांम्पराय गुणस्थान में ही- सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है। तथा
उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली में- यथाख्यात चारित्र संभव है। - देशविरति चारित्र पाँचवें गुणस्थान में ही होता है। सार रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रमत्तसंयत से अयोगकेवली गुणस्थान तक संयत जीव होते हैं। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत जीव प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवत्तिबादरसम्पराय तक पाये जाते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र वाले जीव अप्रमत्तसममत्त गुणस्थान में होते होते हैं। सूक्ष्मसम्पराय चारित्र वाले जीव मात्र सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में होते हैं। यथाख्यात चारित्र वाले संयतजीव उपशान्त कषाय गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक होते हैं। संयतासंयत जीव मात्र देशविरत गुणस्थान में होते हैं। असंयत जीव प्रारम्भ के 4 गुणस्थान में होते हैं।
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