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________________ से भी सिद्ध हो सकते हैं)। श्वेताम्बर परम्परा यह मानती है कि दसवें से चौदहवें गुणस्थान तक समस्त काम वासनाएं समाप्त हो जाने से तीनों ही लिंगधारी मोक्ष जा सकते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति वादर साम्पराय नामक नवमें गुणस्थान तक तीनों काम वासनाओं (वेद) के प्राकट्य की सम्भावना रहती है। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादरसम्पराय नामक 9वें गुणस्थान तक तीनों कामवासनाओं (वेद) के प्राकट्य की संभावना रहती है तथा अवेदियों में अनिवृत्ति से लेकर अयोगीकेवली तक 6 गुणस्थान पाये जाते हैं। (6) कषाय मार्गणा अनियहन्त नपुंसा सन्नीपंचिदिया य थी पुरिसा। कोहो माणो माया नियट्टि लोभो सरागतो।।60।। जीवसमास कषाय के कुल 25 भेद हैं- तीव्रताक्रम की 4 श्रेणियों ( अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन) के कषाय चतुष्क( क्रोध,मान, माया,लोभ) के 16 भेद तथा हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, तीन वेद(स्त्री, पुरुष,नपुसंक) सम्बन्धी कामवासनीय विकार आदि। गुणस्थान एवं कषाय सम्बन्धी विधानों को निम्नवत् रूप से स्पष्ट किया जा सकता हैउदय की दृष्टि से- प्रथम- मिथ्यादृष्टि जीव के- 25 कषायों की सम्भावना रहती है। चतुर्थसम्यग्दृष्टि जीव के- 21 कषायों की सम्भावना (अनन्तानुबन्धी 4 कषायों का अभाव) रहती है। पंचम- देशविरत सम्यग्दृष्टि जीव के - 17 कषायों की संम्भावना (अनन्तानबन्धी एवं अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क(8) का अभाव) रहती है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानधारी के- 13 कषायों की संभावना ( उपर्युक्त के अतिकिक्त प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क (12) का अभाव) रहती है।नवमें गुणस्थानधारी के- 7 कषायों की सम्भावना (संज्वलन+ वेदत्रिक) रहती है। दसवें गुणस्थानधारी के- 1 (संज्वलन लोभ शेष रहता है) कषाय की ही अत्यल्प रूप में संभावना रहती है। दसवें गुणस्थान से ऊपर कषाय मार्गणा का अभाव हो जाता है। संजी पंचेनद्रिय जीवों में अनिवृत्ति बादर सम्पराय नामक गुणस्थान तक तीनो वेद व क्रोध मान माया ये तीन कषाय दोते हैं। सूक्ष्म लोभ 10वें गुणस्थान तक ही रहता है। क्रोध मान माया व लोभयुक्त जीव कषायी होते हैं। अर्थात् प्रथम 10वें गुणस्थान तक कषाय रहते हैं तथा 11वें से 14वें गुणस्थान तक जीव अकषायी हो जाते हैं। (7) ज्ञान मार्गणा आभिणिसुओहिमणकेवलं च नाणं तु होइ पंचविहं। उग्गह ईह अवाय धारणा भिणिवोहियं चहा ||69।। जीवसमास आभिनबोधिकज्ञान (मतिज्ञान) श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान- ये पाँच प्रकार के ज्ञान हैं। अभिनबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान भी चार प्रकार का है अवग्रहेयावायधारणा।।त. सू. अध्याय-1||
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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