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________________ देव तथा नारक में चार, त्रियंच में पाँच मनुष्य में चौदह तथा अपर्याप्त जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि नामक एक जीव समास ( गुणस्थान) होता है। गति के चार प्रकार हैं (अ) देव और नरक गति - यहाँ मिथ्यादृष्टि से लेकर चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक पाया जाता है। (ब) तिर्यञ्च गति- मिथ्यादृष्टि से लेकर पंचम देशविरत गुणस्थान तक अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में ही संभव है। (स) मनुष्य गति- इसमें चौदह गुणस्थान संभव हैं। (2) इन्द्रिय मार्गणा एगिंदिया य वायरसुहुमा पज्जत्तया अपज्जत्ता। वियत्तियचउरिंदिय दुविहभेय पज्जत्त इयरेय । । 23।। पंचिदिया असण्णी सण्णी पज्जत्तया अपज्जत्ता। पंचिदिएस चौद्दस मिच्छद्दिट्ठी भवे सेसा ||24|| जीवसमास एकन्द्रिय के बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त तथा अपर्याप्त ये 4 भेद हैं। द्वि, त्रि व चतुरिन्द्रिय तीनों के पर्याप्त - अपर्याप्त ऐसे 6 भेद हैं। पंचेन्दिय जीवों के संज्ञी असंज्ञी, पर्याप्त - अपर्याप्त ऐसे 4 भेद हैं। जीव त्रस नाम कर्म के उदय से एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियों में सैनी - असैनी उत्पन्न होता है। एक से चतुरेन्द्रिय जावों के मात्र एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है जबकि पंचेन्द्रिय के मिथ्यात्व से अयोग केवली तक 14 गुणस्थान होते हैं। एकेन्द्रिय जीव - सूक्ष्म - अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त, बादर अपर्याप्त और बादर पर्याप्त (4) द्वि इन्द्रिय जीव - पर्याप्त, अपर्याप्त (2) (3T) (ब) (स) (द) 3 (122) त्रि इन्द्रिय जीव- पर्याप्त, अपर्याप्त (2) चतुरिन्द्रिय जीव- पर्याप्त, अपर्याप्त (2) संज्ञी पर्याप्त,संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त, असंज्ञी अपर्याप्त (4) कुल = 14 एक से चतुरिन्द्रिय जीवों के मात्र एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है जबकि पंचेन्द्रिय के मिथ्यात्व से अयोग केवली तक 14 गुणस्थान होते हैं। इन्द्रिय की अपेक्षा से जीव के ये कुल = 14 भेद या 14 भूत ग्राम कहे गये हैं। अपर्याप्त जीवों के दो भेद हैं (क) लब्धि अपर्याप्त- वे जीव हैं जो अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से स्वयोग्य प्राप्तियों को पूर्णतः प्राप्त किए बिना ही मर जाते हैं। करण अपर्याप्त- जो जीव हैं जिनके अपर्याप्त नाम कर्म का उदय जो या न हो फिर भी शरीरादि इन्द्रियों को अपने करण से प्राप्त नहीं कर लेते तब तक अपर्याप्त ही कहे जाते हैं। पर्याप्तियों के 6 प्रकार कहे गये हैं- आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छवास भाषा व मनः पर्याप्ति। आहारसरीरिंदियपज्जत्ती आणपाण भासमणे । चत्तारि पंच एगिंदियविगलसण्णीणं || 25 || जीवसमास । 66
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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