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________________ अध्याय -3 गणस्थान एवं मार्गणाएं मार्गणाएं गुणस्थान अभिगम का अभिगन्न अंग है। इनका अध्ययन गुणस्थान को समझने हेतु आवश्यक है। षट्खण्डागम में कहा गया हैजाहि व जासु व जीवा मणिज्जते जहा तहा दिट्ठा । ताओ चौदस जाणे सुवणाणे मम्मणा होति।।4।। षट्खण्डागम 11112 पृ. 132 नय शब्दों में जिन-जिन अपेक्षाओं से जीव की विभिन्न अवस्थाओं या पर्यायों का अध्ययन किया जाता है उन्हें मार्गणा कहा जाता है। इसके माध्यम से जीव अपनी अभिव्यक्ति करता है। अन्य शब्दों में जीव की शारीरिक,एन्द्रिक मानसिक एवं आध्यात्मिक अभिव्यक्तियों के मार्गों को ही माग्गणा या मार्गणा कहे जा सकते हैं। जीवसमास (श्वेताम्बर), षटखणडागम(यापनीय) गौम्मटसार(दिगम्बर), दर्शनसार व धवलाटीका आदि में इनका उल्लेख मिलता है। मार्गणा गवेषणा और अन्वेषण ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से मार्गणा के चार अर्थ हैं- मृगयिता, मृग्य, मार्गणा और मार्गणोपय। चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव मृग्य अर्थात अन्वेषण करने योग्य है। मृग्य पद से सूचित होता है कि मार्गणा भी चौदह गुणस्थानों की द्योतक हैं। सत् संख्या आदि अनुयोग द्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसके द्वारा या जिसमें खोजे जाते हैं उसे मार्गणा कहते हैं। जीवसमास गुणी और गुणस्थान गुण है गुण को छोड़कर गुणी और गुणी को छोड़कर गुण नहीं रहते, गुणियों में गुणों का उपचार करके गुणी को भी गुण कह दिया जाता है (गुणिषुः गुणोपचारः) अतः जीवसमास को गुणस्थान भी कहते हैं। मार्गणा को भी गुणस्थान कहते हैं वस्तुतः ये गुणस्थानक अवस्थाओं के आरोहण के मार्ग माने जा सकते हैं। जिस प्रकार जीवादि सप्त तत्त्व व षट द्रव्य गुण स्थानक विषयवस्तु से सम्बन्ध रखते हैं वही सरोकार गुणस्थान से मार्गणाओं का है। जैन दर्शन में जिन चौदह मार्गणाओं का उल्लेख मिलता है वे इस प्रकार हैं गइ इन्दियं च काए जोए वेए कसाय णाणे य । संजम दंसण लेस्सा भव सम्मे सन्नि आहारे || 6 || जीवसमास।। गइ इन्दियं च काए जोए वेए कसाय णाणे य । संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत सण्णि आहारे || 57 || पञ्चसंग्रह।। गति, इन्द्रिय काय.योग,वेद.कषाय,ज्ञान.संजम.दर्शन.लेश्या,भव्यत्व,सम्यक्त्व, संज्ञा तथा आहा ये 14 जीव मार्गणाएं हैं। (1) गति मार्गणा सुरनारएसु चउरो जीवसमासा उ पंच तिरिएसु। मणुयगईए चउदस मिच्छदिही अपज्जत्ता।। जीवसमास 65
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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