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गुणस्थानों में ध्यान की मन्दता व तीव्रता
ध्यान
अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थान की अवस्थाओं में ध्यान की स्थिति निम्नवत् रहती है
आर्तध्यान का सदभाव तीनों अवस्थाओ में रहता है।
रौद्र ध्यान = अविरत व देशविरत अवस्था में होता है।
धर्म ध्यान = अप्रमत्त संयत को उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय की अवस्था में होता है। शुक्ल ध्यान = उपशान्तं कषाय (उपशान्त मोह), क्षीण कषाय (क्षीण मोह) की स्थितियों में होता है।
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आर्त रौद्र भवेदत्र, मन्दं धर्म्य तु मध्यमम् । षट कर्म प्रतिमा श्राद्ध व्रत पालम संभवम् ।। आर्त-रौद्र ध्यान की मन्दता, श्रावक के षटकर्म, ग्यारह प्रतिमा और बारह व्रत इन व्रतों का पालन करने वाला व्रती मध्यम श्रावक कहलाता है।
(3T)
आर्तध्यान स्व पीड़ा जन्य ध्यान आर्तध्यान है। ये चार प्रकार का है.
अनिष्ट संयोग इससे सतत आकुल व्याकुल रहना
इष्ट वियोग- इसके चलते दुःख विलाप आदि करना
वेदना असातावेदनीय जनित शारीरिक रोग की सतत चिन्ता
(ब)
(द)
(3T)
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निदान पौदगलिक सुख की लालसा से निदान कर लेना यथा पूजादि से मुझे अमुक ऋद्धि प्राप्त हो ऐसी कामना युक्त ध्यान करना ।
रौद्र ध्यान- आत्मा के अत्यन्त क्रूर और किलिष्ट परिणाम होना रौद्र ध्यान का लक्ष कहा गया है। इसके भी चार भेद हैं
हिंसानुबंधी यथा- वह मर जाय तो में चैन से बैठूं ऐसा सतत क्रूर चिन्तन
मृषानुबंधी किसी को ठगने या नाश हेतु भयंकर झूठ बोलना
स्तेयानुबंधी - चोरी के अनेकानेक प्रयासों का सतत चिन्तन
संरक्षणानुबंधी परिग्रह की सुरक्षा संरक्षण सम्बन्धी सतत चिंता
नोट- देशव्रती के आर्त और रौद्र दौनों ध्यान हो सकते हैं किन्तु साथ ही धर्म ध्यान की उपस्थिति अमुक/आंशिक प्रमाण में रहती है।
(स)
धर्म ध्यान- धर्म के विषय में शुभ चिंतन ही धर्म ध्यान कहलाता है। इसके भी चार भेद हैंआज्ञा विचय वीतराग परमात्मा की क्या आज्ञा है? इसका विचार ।
अपाय विचय- किस कर्म का क्या फल / दुर्गति है? का विचार करना ।
विपाक विचय- सुख दुःख स्वकृत कर्म का फल है दुसरे तो निमित्त मात्र हैं ऐसा सतत चिंतन करना
संस्थान विचय चौदह राज लोक का क्या स्वरूप है- लोक स्वरूप का चितंन करना सामन्यतया शुभ ध्यान दो प्रकार के होते हैं
शुभ ध्यान व्यवहारलय आश्रित
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