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________________ या जीव स्थान कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में आगम ग्रंथ प्राचीन माने जाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द कृत अष्ट पाहुड़, समयसार, प्रवचन सार, दर्शन सार, षट्खण्डागम (धवला टीका), मूलाचार, भगवती आराधना, नेमीचन्द्र कृत गौम्मटसार, द्रव्य संग्रह, उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र, पूज्यपाद देवनन्दीकृत सर्वार्थसिद्धि, भट्ट अकलंक का राजवार्तिक, विद्यानन्दजीकृत श्लोकवार्तिक तथा दर्शनसार आदि प्रमुख ग्रंथ इसी परम्परा से सम्बन्ध रखते हैं। इन सभी में आध्यात्मिक विकास के कुछ न कुछ घटकों या अंशों की चर्चा की गई है यहाँ तक कि गुणस्थान सिद्धान्त में प्रयुक्त शब्दावली उपशम, क्षय, क्षीणमोह, सूक्ष्म सम्पराय, कषायचतुष्क, भावों, जीवत्व आदि का प्रयोग इनमें हुआ है लेकिन गुणस्थानों या 14 भूमियों/पर्यायों को लेकर षट्खण्डागम के सिवाय अन्यत्र समन्वित स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता । यद्यपि इसमें गुणस्थान को जीव समास ( जीव की अवस्था / पर्याय) कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में सात नयाँ नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समिभिरुद्ध एवं एवंभूत) वर्णित हैं। जीवसमास में अंतिम दो नयों का अल्लेख नहीं है। वहीं सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय को अस्वीकार करते हुए समभिरूढ़ एवं एवंभूत के साथ इनकी संख्या 6 मानते हैं। इससे प्रतीत होता है कि नयों की अवधारणा छठी सदी के उत्तरार्ध में विकसित हुई है और जीवसमास इससे पूर्व जबकि गुणस्थानों के आधार पर अवलोकन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानों की अवधारणा ज्यों की त्यों देखने को नहीं मिलती जबकि जीव समास में है। षट्खण्डागम में भी पाँच नयाँ का उल्लेख है। गुणस्थान की अवधारणा लगभग पाँचवीं सदी के उत्तरार्द्ध और छठी सदी के पूर्वार्द्ध में कभी अस्तित्व में आयी होगी ऐसा माना जा सकता है। इस समय में जीवस्थान, गुणस्थान व मार्गणास्थान का एक दूसरे से पारस्परिक सह सम्बन्ध निश्चित हो चुका था। गुणस्थानों की अवधारणा जैन धर्म की एक प्रमुख अवधारणा है तथापि प्रचीन स्तर के जैनागमों आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक व भगवती आराधना आदि में इस सिद्धान्त का कोई उल्लेख नहीं है । सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों को समवायांगसूत्र में मात्र जीवस्थान (जीवठाण) के नाम से तथा षट्खण्डागम में गुणस्थान के नाम से जाना गया है। जीवसमास उस प्रारम्भिक काल की रचना है जब गुणस्थानों की अवधारणा जीवसमास के नाम से प्रारम्भ होकर गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में अपना स्वरूप ले रही थी। कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवाण पण्णत्ता तं जहा मिच्छादिट्ठी, सासायणसम्मादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरयसम्मादिट्ठी, विरयविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्ठिबायरे, अनिअट्ठिबायरे, सुहमसंम्पराए, उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली ।। समवायांग- सम्पादक मधुकर मुनि 6
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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