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________________ ऐसा भी संभव है कि किसी ने यावज्जीवन धर्माराधना में चित्त न लगाया हो, किन्तु अन्त काल में अपूर्व विवेक का बल प्राप्त कर समाधि करले किन्तु यह काकतालीय न्यायवत् अत्यन्त कठिन है। जैसे ताड़ वृक्ष से फल टूट कर उड़ते हुए कौए के मुख मे वह फल प्राप्त हो जाना कठिन है, वैसे ही संस्कारहीन जीवन में समाधिमरण पाना दुःसाध्य है। आचार्य समन्तभद्र ने संलेखना धारण की स्थितियों पर प्रकाश डालते हुए कहा हैउपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निः प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः संल्लेखनामार्याः।। अर्थात् जिसके प्रतिकार( निवारण) का कोई उपाय नहीं हो, ऐसे उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और असाध्य रोग के उपस्थित होने पर जीवन में परिपालित धर्म(श्रद्धा, ज्ञान और आचार) की रक्षा के लिए शरीर का विधिपूर्वक त्याग करना संलेखना या समाधिमरण है। भगवती आराधना के कर्ता आचार्य शिवार्य के शब्दों में -संलेखना के लिए वही तप या उसका वही क्रम अंगीकार करना चाहिए, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीर धातु के अनुकूल हो, क्योंकि सामान्यतः संलेखना का जो क्रम बतलाया गया है वही क्रम रहे - ऐसे एकान्त नियम से साधक को प्रतिबद्धता हो सकती है। अतएव संलेखना धारकों को पाँच निम्नलिखित दोषों से स्वयं को बचाना चाहिए- 1- जीवन की आशंसा, 2- मरण की आशंसा, 3- मित्र के प्रति अनुराग, 4भुक्तभोगों की स्मृति, 5- आगामी भव में अच्छे भोगों की प्राप्ति की कामना। संलेखना आत्मघात नहीं है। ___ यदि आयुष्य कर्म की स्थिति वेदनीय आदि कर्मों (वेदनीय, नाम,गोत्र) की अपेक्षा से कम हैं तो उसे तल्य करने के लिए आत्मा समुद्रघात करती है। इस समुदघात दवरा आत्मा दीर्घकाल के बाद भोगने योग्य कर्मों को प्रबल प्रयत्न से उदीरणा करके उदय में लाकर नष्ट कर लेते है। जिन केवली के वेदनीयादि त्रि कर्मों की स्थिति शेष हों वे समुदघात नहीं करते। समुद्रघात के 7 प्रकार हैं1. वेदना समुद्रघात- भयंकर वेदना के कारण दुखी हुई आत्मा अपने आत्म कर्मों से आवृत अपने आत्म प्रदेशों को शरीर में से बाहर निकलती है और शरीर के मुख आदि खाली भागों को आत्म प्रदेशों से भर देती है। शरीर प्रमाण आत्मा व्यापक बनकर रहती है। इस काल में आत्मा असाता वेदनीय कर्म के बहुत से अंशो का नाश करती है। इसे ही वेदना समुद्रघात कहा जाता है । 2. कषाय समुद्रघात - कषाय से व्याकुल आत्मा शरीर व्यापी बनकर एक अन्तर्मुहुर्त के काल में कषाय मोहनीय कर्म के अनेक अंशों का नाश करती है। 3. मरणान्तिकं समुद्रघात- मृत्यु के भय से व्याकुल आत्मा एक अन्तर्मुहुर्त जितना आयुष्य बाकी रहने पर शरीर के पोले भागों में आत्म प्रदेशों को भरकर शरीर की लम्बाईचौडाई जितना बनता है परन्तु लम्बाई में जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना और उत्कृष्ट से उत्पत्ति स्थान के असंख्य कर्म के बहुत से दलिकों का नाशकर जीव मृत्यु पाता है।
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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