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________________ और उसके कल्याण को ही सर्वाधिक महत्व उचित समझाता है। पं. आशाधरजी ने इस संदर्भ में लिखा है नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्टः पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ।। सर्वार्थसिद्धि आचार्य पूज्यपाद ने संलेखना के महत्व और आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए लिखा मरण, किसी को इष्ट नहीं है। जैसे अनेक प्रकार के सोने, चाँदी, बहुमूल्य वस्त्रों आदि का व्यापार करने वाले किसी को भी अपने घर का विनाश कभी भी इष्ट नहीं हो सकता। यदि कदाचित उसके विनाश का कोई (अग्नि, बाढ़ आदि) कारण उपस्थित हो जाय तो वह उसकी रक्षा करने का पूरा उपाय करता है और जब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ नहीं देखता है तो घर में रखे हुए उन सोना- चाँदी आदि बहुमूल्य पदार्थों को, जितना संभव बने, वैसे बचाता है तथा घर को नष्ट होने देता है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं- जीवन में आचरित अनशनादिक विविध तप का फल अन्त समय गृहीत संलेखना है अतः अपनी पूरी शक्ति के साथ समाधिपूर्वक मरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए। वस्तुतः शरीर धारण के उद्येश्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि है। जब वह न हो सके तो इस शरीर को संलेखना के लिए समर्पित कर देना चाहिए। जैन साधना पद्धति के अनुसार कोई साधक असमय में मृत्यु को निमंत्रण नहीं देता, परन्तु जब संयम जीने का अन्य कोई उपाय शेष रहे तो अपने संयम की रक्षार्थ शरीर का मोह छोड़कर आत्मलीन हो जाता है। यह ऐसा ही है जैसे हम अपनी कोई प्रिय वस्तु फेंकना नहीं चाहते, परन्तु हमारी नौका भारी होकर डूबने लगे तो बहुमूल्य वस्तु को बचाने के लिए हम अल्प मूल्य वाली वस्तुओं को तत्काल नदी में फेंक देते हैं। संलेखना में भी जीवन की नाव डूबते समय संयम साधना जैसी दुर्लभ और बहुमूल्य निधि को बचाने के लिए साधक शरीर जैसी तुच्छ वस्तु का मोह त्याग देता है। वह मृत्यु को माता के समान उपकारी मानता है, क्योंकि मृत्यु ही जीव को जीर्णशीर्ण शरीर से उडाकर नया शरीर प्राप्त कराती है। संलेखना में रत साधक को न तो शीघ्र मरण की कामना करनी चाहिए और न अधिक जीने की आकांक्षा ही। उसे तो अपनी अजर अमर आत्मा के अनुभव में ऐसा लीन हो जाना चाहिए कि वह जीवन और मरण के विकल्पों से बहुत ऊपर उठ जाय। आचार्य सकलकीर्ति ने भी कहा है धीरत्वेन सतां मृत्यु, कातरत्वेन चेद् भवेत् । कातर त्वं बलात्यक्त्वा, धीरत्वे मरणं वरं ।। । मृत्यु धीरता से भी प्राप्त होती है और कातरता ( दीनता) से भी होती है, तब कातरता को साहस के साथ छोड़कर धीरतापूर्वक मरण करना श्रेष्ठ है। आचार्य समंतभद्र ने ठीक कहा है अन्तक्रियाधिकरण तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं ।। अर्थात् जीवन के अन्त में समाधि का आलम्ब लेकर शरीर का त्याग करना ही जीवन में की गई तपस्या का फल है, जिसे मुनि और गृहस्थ सभी को समान रूप से अपनाना चाहिए और शक्तिभर पूर्ण प्रयत्न कर समाधि मरण करने का अवसर चूकना नहीं चाहिए। समाधिमरण वही प्राप्त कर सकता है, जो प्रारम्भ से ही धर्म की आराधना में सावधान रहा है। कदापि 53
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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