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________________ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- यह तमोगुण प्रधान स्थिति है। सत्वगुण की आंशिकता भी तमो व रजोगुणाधीन रहती है। सास्वादन- तमोगुण प्रधान है किंचित मात्रा में सत्वगुण का प्रकाश होता है जब तक आत्मा पतित होकर मिथ्यात्व गुणस्थान को पुनः प्राप्त हो। मिश्र गुणस्थान- यह रजोगुण प्रधान है। सत्व और तम रजोगुणाधीन होते हैं। सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- विचार सम्यकत्व या सत्व गुण प्रेरित आचार रजो एवं तमो गुण प्रेरित रहता है। अतः विचार की दृष्टि से यह समन्वित सत्वगुण प्रधान अवस्था है तथा आचरण की दृष्टि से सत्व समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है। देशविरत सम्यकत्व गुणस्थान- विचार की दृष्टि से सत्वगुण प्रधान तथा आचार की दृष्टि से आरम्भिक सत्व (अणुव्रती) प्रधान है। इसलिए यह सत्वोन्मुखी रजोगुण प्रधान अवस्था है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान- यहाँ आचार पक्ष पर सत्वगुण का प्रभुत्व थोड़ा बढ़ता है और तम तथा रज की प्रधानता न स्वीकारने की शक्ति का सृजन संयमादि के चलते होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान- यहाँ सत्वगुण का तमोगुण पर पूरा अधिकार या विकास(क्षयोपशम या क्षय) हो जाता है किन्तु रजोगुण पर अभी अधिकार होना शेष रहता है। अपूर्वकरण गुणस्थान- यहाँ सत्व रजोगुण पर पूरा काबू पाने का प्रयास करता है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान- यहाँ रजोगुण को काफी अशान्त बनाकर काबू पाने का प्रयास किया जाता है किन्तु रजोगुण पूर्णतया निःशेष नहीं होता है। रागात्मक अति सूक्ष्म लोभ प्रवृत्तियाँ छद्मवेश में अवशेष रहती हैं। सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान- इसमें राजस पर पूर्ण स्थापत्य हो जाता है। उपशान्तमोह गुणस्थान- इस अवस्था में साधक की तमस और राजस अवस्थाओं का पूर्ण उपशम उन्मूलन(यदि क्षयोपशम) न होने से सत्व की स्थिति कमजोर पड़ जाती है। क्षीणमोह गुणस्थान- इस गुणस्थान में साधक तमो-रजो गुण का पूर्ण नाश करके पहुँचता है। सत्व गुण का तमस व राजस के साथ चलने वाला संघर्ष समाप्त हो चुका होता है। नैतिक पूर्णता की इस अवस्था में इन तीनों गुणों का साधन रूपी स्थान समाप्त हो जाता है। सयोग केवली गुणस्थान- यह गुणातीत अवस्था की शुद्ध आत्मतत्व रूप स्थिति है यद्यपि शरीर के रूप में इसका अस्तित्व रहता है फिर भी केवलज्ञान की आभा में अप्रभावित ही रहते अयोग केवली गुणस्थान- यह गीता दर्शन के मुताबिक गुणातीत एवं देहातीत अवस्था है जिसमें साधक योग क्रिया के द्वारा नश्वर शरीर का त्याग करता है। जैन परम्परा में इसी अवस्था को अयोग केवली के रूप में जाना जाता है। 142
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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