SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 30 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में से रहित, निर्मल दर्पण के समान, निन्द्यपदार्थों से रहित दिव्य बालुकामय होती है, जो तन-मन और नेत्रों को सुख उत्पन्न करती है।" चारों ओर पंच वर्ण युक्त, मृदुल एवं सुगन्ध से परिपूर्ण सुन्दर छोटे-छोटे घास के मैदान होते हैं। झील, तालाब, वापिका तथा नदियाँ स्वच्छ शीतल जल से परिपूर्ण तथा मकरादि जलचर जीवों से रहित होती हैं और उन्हीं जलाशयों के किनारे रत्नों की सीढ़ियों से युक्त शैय्या एवं आसनों के समूह से परिपूर्ण भोगभूमियों के प्राकृत्रिक भवन, प्रासाद आदि आवास-स्थल बने होते हैं।92 - इस काल में शंख, चींटी, खटमल, गोमक्षिका, डाँस, मच्छर और कृमि आदि विकलेन्द्रिय जीव नियम से नहीं होते। यहाँ असंज्ञी भी नहीं होते, स्वामी और भृत्य का भेद भी नहीं होता, कलह एवं भीषण युद्ध आदि तथा ईर्ष्या और रोग आदि भी नहीं होते। यहाँ अन्धकार नहीं होने से दिन-रात का भेद नहीं है। गर्मी और सर्दी की वेदना भी नहीं है। निन्दा, परस्त्री रमण और परधन हरण आदि दुष्कृत्य भी यहाँ नहीं होते। इस काल में उत्पन्न हुये युगल चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई 6000 धनुष (तीन कोस) एवं आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। पुरुष एवं स्त्री दोनों के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती है। यहाँ जन्मे पुरुषों 91. तिलोयपण्णत्ती 4/324-325 92. वही, 4/326, 328-329 93. (1) तिलोयपण्णत्ती, 4/335-337 (2) लोकविभाग 5/29-30 94. आदिपुराण, 3/30 95. लोकविभाग, 5/11
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy