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________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 29 ये `कल्पवृक्ष वनस्पति रूप नहीं होते और इनका स्वरूप किसी व्यन्तर के समान भी नहीं होता। ये पृथ्वीरूप होते हुये भी जीवों को उनके पुण्य का फल प्रदान करने में समर्थ होते हैं। इनके माध्यम से भोगभूमि के जीव निरन्तर इन्द्रिय जनित उत्तम सुखों को भोगते हैं और अत्यन्त संतोषपूर्वक अपना जीवन यापन करते हैं; किन्तु तृप्ति नहीं होते । भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय काल में जीवों को प्राप्त सभी अनुकूलतायें इन कल्पवृक्षों के द्वारा ही प्राप्त होती है। सामान्यरूप में तीनों भोग भूमियों में भोग सामग्री की बाहुल्यता है, भोगों की ही प्रधानता रहती है, फिर भी तीनों के स्वरूप एवं परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तन को हम पृथक्-पृथक् देखते हैं - अवसर्पिणी का पहला काल (सुषमा- सुषमा) यह काल उत्तम भोगभूमि का काल कहलाता हैं । इस काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों की परिस्थितियाँ उत्तरकुरु एवं देवकुरु नामक शाश्वत भोगभूमियों के समान होती है। ध्यान रहे, षट् कालों का परिवर्तन भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के भी सभी खण्डों में नहीं होता, यह परिवर्तन इन क्षेत्रों के मात्र आर्यखण्डों में ही होता है। म्लेच्छ खण्डों की व्यवस्था को आगे "काल अपरिवर्तन वाले क्षेत्र" शीर्षक में बताया गया है। यह सुषमा- सुषमा नामक पहला काल चार कोड़ाकोड़ी सागर का कहा गया है। इस काल में भूमि रज, धूम, दाह और हिम से रहित साफ-सुथरी, ओलावृष्टि तथा बिच्छू आदि कीड़ों के उपसर्ग
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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