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________________ 26 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में अर्थात् ये युगलिया जीव चक्रवर्ती के भोग-लाभ की अपेक्षा अनंत गुणे भोग भोगते हैं। चक्रवर्ती तो कर्म भूमि में होते हैं, उन्हें विशेष कर्म करना पडता है, जब कि भोगभूमिया जीवों को सर्व सुविधायें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती हैं, उन्हें मनवांछित समस्त भोग सामग्री प्राप्त होती है; फिर भी आचार्य नेमीचन्द्र लिखते हैं कि - 'सुलहेसु वि णो तित्ती तेसिं पंचक्खविसएसु'86 अर्थात् पंचेन्द्रिय भोगों की अतिसुलभता भी उन्हें तृप्ति प्रदान नहीं करती। कहने का तात्पर्य यह है कि भोगों की बाहुल्यता इस जीव को सुखी करने में समर्थ नहीं है। भोग सामग्री इकट्ठी करने के पहले हमें भी यह विचार करना चाहिये कि भोगों में सुख है भी या नहीं ? "इनमें सुख है ही नहीं" - यदि ऐसी प्रतीति हो जाये तो भोगों की वासना मिटे बिना न रहे । वर्तमान में हम कितनी भी भोग सामग्री एकत्रित कर लें, वह भोगभूमि की तुलना में अत्यल्प ही होगी; अतः विचार करना कि भोगभूमि में इतनी अनुकूल सामग्री में भी तृप्ति नहीं हुई तो अब इस अल्प सामग्री से तृप्ति कैसे होगी ? अतः भोग सामग्री से दृष्टि हटाकर अपने स्वभाव को देखने का प्रयत्न करना चाहिये। जीवन पर्यंत भोगी जाने वाली ये समस्त भोग सामग्री उनको दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है। जैन आगमों में इनकी 10 जातियाँ बताई गई है, उनके नाम निम्नानुसार हैं - 1. पानांग 2. तूर्यांग 3. भूषणांग 4. वस्त्रांग 5. भोजनांग 86. त्रिलोकसार, गाथा-790 (उत्तरार्द्ध)
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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