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गंभीरता से अध्ययन करते रहे | पहली कक्षा में ही कालिदासजी का बाल रघुवंश पढ़ लिया । छठी कक्षा में कविता बनाना भी प्रारंभ हो गया । अन्य साहित्य के साथ धार्मिक साहित्य का भी वाचन आप करते रहे और पढ़ते-पढ़ते, संत-साध्वियों से कहानियाँ सुनते-सुनते, सुंदर अक्षरों में व्याख्यान आदि के पत्र लिखते-लिखते संसार की असारता का बोध कब हुआ - यह आपको भी पता नहीं चला।
7 प्रगट हआ वेराग - अंतर्मन जाग जाग !
डूंगर प्रान्त में विचरण करते हुए कविवर्य पू. श्री सूर्यमुनिजी म.सा. का थांदला में पदार्पण हुआ - प्रथम बार आपश्री ने पज्य गरूदेव के दर्शन किए और आपको गरूदेव की वह छवि संसार तरणी - भव दुःखहरणी सी लगी । मन से समर्पण तो हो गया और इस दिशा में पुरूषार्थ भी होने लग | पू. गुरूदेव श्री के विहार पश्चात् धार्मिक पाठशाला में एकाध माह में ही अर्थ सहित प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिया और पूज्य श्री का संवत् 1999 का वर्षावास पेटलावद था, वहाँ जाकर सुना भी दिया | अब आपके हर कार्य मे जीवन के अंधकार से आत्मा की उज्ज्व लता में प्रवेश करने का निश्चय पूर्णतः सावधान था | सच में किसी धर्म प्रवर्तक की चर्चा जब धरा करती हैं तो वह सिर्फ उसमें रहे हुए संस्कार - बल का ही प्रकटीकरण होता हैं । और ऐसे ही शुभ संस्कारों के कारण वैराग्य के भाव आप श्री की हर क्रिया में व्यक्त हो रहे थे।
8 वैराग्य भावो के संग - श्रद्धा और आचरण का रंग !
समय अपनी गति से बढ़ रहा था, धर्म श्रद्धा का रंग चढ़ रहा था और जीवन में घटित घटनाओं का निमित्त एक इतिहास गढ़ रहा था | गृहवास में रहते हुए कभी लोगस्स सुनाकर किसी महिला का जहर उतारा तो कभी देवी शक्ति के साथ निर्भिकता से चर्चा की | देव-गरू-धर्म के प्रति श्रद्धा तो दृढ़ थी ही, अब आचरण की दिशा में भी चरण बढ़ते गए | पूज्य गुरुदेव के प्रति आपने अपने भावों को व्यक्त किया । आंतरिक आशिर्वाद भी प्राप्त हुए । फिर भी पुरुषार्थ तो आपको ही करना था । भावना दृढ़ थी । अतः दीक्षा हेतु आवश्यक क्रियाएँ भी समझी । 17 वर्ष की उम्र में लोच करना भी सिखा | बचपन में चाय-पराठे पसंद थे, लेकिन " चाय तो छुटे नी ने कई दीक्षा लेगा " माताजी के इन शब्दों में ही अप्रत्यक्ष प्रेरणा रही थी कि किसी भी चीज का आदि बनने वाला संयम का पालन कैसे कर सकता हैं, अतः उसी समय संकल्प बद्ध हो गए - कि अब चाय नहीं पीना | सच में दृढ़ संकल्पी के लिए असंभव कुछ भी नहीं होता |