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शक्रेन्द्रक्रत
कल्पसूत्रे মহাখ ॥८३॥
तीर्थकर
जन्म महोत्सवः
फुट्टिहिति त्तिकट्ठ घोसणं घोसंति २ त्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति तए णं त बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा भगवओ तित्थयरस्स जम्मण महिमं करेंति २ ता जेणेव गंदीसरदीवे तेणेव उवागच्छंति २ ता अहियाओ महा महिमाओ करेंति र त्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया इति पंचमाधिकार ॥२८॥ " भावार्थ-तत्पश्चात् शक देवेन्द्र आभियोगिक (सेवक) देवों को बुलाते हैं और कहते हैं कि । अहो देवानुप्रिय! भगवान् तीर्थंकर के जन्म नगर में शृंगाटक यावत् महापथ में बडे २ शब्द से उद्घोषणा करके ऐसा बोले अहो बहुत भवनपति वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक देवता और देवियों सुनो ! कि जो कोई तीर्थंकर व उनकी माता पर असुख (दुःख) करेंगे उनका मस्तक ताडवृक्ष की मंजरी समान तोड दिया जायगा ऐसी उद्घोषणा
मानामा
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