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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥७४॥ मेयं अरहा ! अणुहूयमेयं अरहा ! जे अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वेऽवि अनंतबलिया अनंतवीरिया अनंत पुरिसक्कारपरकमा हवंति तिकट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता नियअवराहं खमावेइ ॥२३॥ भावार्थ - जिस समय मेरु पर्वत कांपने लगा, उस समय निश्चय ही सारी पृथ्वी कांप उठी, समुद्र क्षुब्ध हो गया, शिखर गिरने लगे, समस्त संसार के जीवों के हृदय कोविदारण करनेवाला महान् भयंकर नाद हुआ। तीनों लोक में बडा कोलाहल हो गया। लोग डर गये । सब प्राणी भय से व्याकुल होकर, अपने-अपने स्थान से निकलकर 'कौन हमारी रक्षा करेगा' ऐसा सोचकर शरण खोजने के लिए इधर-उधर भागने लगे और सभी देवी एवं देवताओं का चित्त भी भय से कांपने लगा । 'तब देवेन्द्र देवराज शक ने इस प्रकार विचार किया - अगर यह विशाल मेरु पर्वत, 'कमल से भी कोमल, बालवयवाले उन प्रभु के ऊपर गिर जायगा तो इनकी क्या दशा शक्रेन्द्रक तीर्थकर जन्ममहोत्सवः ॥७४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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