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शक्रेन्द्रक्रततीर्थंकर
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥७१॥
जन्म
महोत्सवः
एगदेसे फुसइ । तए णं भगवओ तित्थयरस्स अंगुलुग्गफासमेत्तेणं मेरु 'महा- | पुरिसाणं चरणफासेण अहं पावणो जाओम्हि'-त्ति कटु हरिसिओ विव कंपिउमारद्धो ॥२२॥
भावार्थ-तदनन्तर वे आभियोगिक देव हृष्टतुष्ट हुए यावत् यह वचन सुनकर के उत्तर पूर्व दिशा की ओर ईशानकोने में जाकर वैक्रिय समुद्घात करते हैं वैक्रियसमुद्घात करके वैक्रिय समुद्घात से आठ सहस्त्रसुवर्ण का कलश एवं तत्पश्चात् १ स्वर्ण के, (२) चांदी के, (३) रत्नों के, (४) सोने-चांदी के, (५) सोने-रत्नों के, (६) चांदीरत्नों के, (७) सोने-चांदी-रत्नों के तथा (८) मृतिका के, इन आठ प्रकार के कलशों में से एक एक जाति के प्रत्येक इन्द्र के पास एक हजार आठ कलश थे। इस प्रकार
चोंसठ इन्द्रों के कुल पांच लाख, सोलह हजार, छयानवे कलश हुए। इतने कलशों को | देखकर देवेन्द्र देवराज शक को ऐसा आध्यात्मिक, प्रार्थित, चिन्तित, कल्पित, मनोगत
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