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________________ EN उपसंहारः कल्पसूत्रे रूप यह भववृक्ष है। [नयसार भवो भूमि] नयसार का भव इसकी भूमि है [आलवालं सशन्दार्थे । च भावणा] भावनाएं इसकी क्यारी है [समत्तं बीयमक्खायं] सम्यक्त्व बीज है [जलं ॥७७०॥ | निस्संकिया इयं] निःशंकित आदि जल है [अंकुरो नंदजम्मं च] नन्द का जन्म अंकुर all है [वृत्ती ठाणग वीसइ] वीस स्थानक वाड है [रूक्खो वीरभवो] वीर का भव वृक्ष है [जस्स साहाओ गणहारिणो] जिसकी शाखाए' गणधर है [चउस्संघो पसाहाओ] चतुविध संघ इसकी प्रशाखाए है [सामायारि दलाणिय] सामाचारी इसके पत्ते हैं [पुप्फावलि य तिवइ] त्रिपदी फूल है [बारसंगी सुगंधओ] बारह अंग इसका सौरभ है-सुगंध है [फलं मोक्खो] मोक्ष इसका फल है [निराबाहाणंताक्खयि सुहं रसो] अव्याबाध अनन्त असीम और अक्षय सुख इसका रस है [वीरस्स भवरुक्खोऽमू कप्पसुत्तस्स रूवगो] इस प्रकार यह कल्पसूत्र वीर भगवान का भववृक्ष-रूप है [भव्वसंकप्प कप्पहु-कंप्पो | चिंतिय दायगो] यह कल्पसूत्र भव्य जीवों का मनोरथ सफल करने के लिये कल्पवृक्ष के ॥७७०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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