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________________ प्रभवस्वामि परिचयः कल्पसत्रे सशब्दार्थ ॥७६२॥ मिच्छत्ततिमिरपडलं विणासेतो भव्वहिययकमलाई वियासेतो सुहम्मसामि परिपोसियं चउव्विहसंघवाडियं देसणामिएणं अहिसिंचिय उवसम-विवेग वेरमणाइ पुप्फेहिं पुफियं अत्तकल्लाणफलेहिं फलियं च कुव्वंती विहरइ । एवं विहरमाणो सो कालमासे कालंकिच्चा सग्गं गओ। तओ चुओ सो महाविदेहे खित्ते समुप्पज्जिअ सासओ सिद्धो भविस्सइ ॥४९॥ .. शब्दार्थ-[सिरि जंबूसामिम्मि मोक्खं गए तप्पट्टे सिरि पभवसामी उवाविसीअ] जंबूस्वामी के मोक्ष पधारने पर श्री प्रभवस्वामी उनके पाट पर बैठे [तउप्पत्ती चेवम्] उनकी उत्पत्ति इस प्रकार है [विंझायलसमीवे जयपुराभिहाणं नयरं आसि] विन्ध्याचल पर्वत के समीप जयपुर नामका नगर था [तत्थ विंझो णाम णरवई होत्था] वहां विन्ध्य नामका राजा था [तस्स पुत्तदुगं आसि] उसके दो पुत्र थे [एगो जेट्टपभवाभिहाणो, ॥७६२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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