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कल्पसूत्रे । मोह के वश होकर वह विलाप करने लगे, हे भगवन् ! महावीर ! हा! हा! वीर आपने गौतम
स्वामिन सशब्दार्थे । यह क्या किया ? मुझ चरण सेवक को दूर भेज दिया और आप स्वयं मोक्ष चल दिये। विलापा ॥७३१॥ क्या मैं आप को हाथ पकड कर बैठ जाता ? क्या आपके मोक्ष में हिस्सा मांग लेता? केवलज्ञान
प्राप्तिश्च फिर क्यों मुझे दूर भेज दिया ? अगर मुझ गरीब सेवक को आप साथ लेते जाते तो क्या मोक्षनगर में जगह न मिलती ? महापुरुष सेवक के बिना क्षण भर भी नहीं रहते, भदन्त ने यह परिपाटी कैसे भुला दी ? यह तो उल्टी ही बात हो गई। खेर, साथ, ले जाना तो दूर रहा, मुझे आंखों से भी ओझल फेंक दिया। क्या अपराध किया था । मैंने, जिससे आपने ऐसा किया ? अब आप देवानुप्रिय के अभाव में कौन ‘गोयमा, . गोयमा' कह कर मुझे संबोधन करेगा ? किससे में प्रश्न पूछंगा ? कौन मेरे मनके प्रश्न का समाधान करेगा ? लोक में मिथ्यात्व का अंधकार फैल जायगा, अब कौन उसे दूर करेगा ? इस प्रकार विलाप करते हुए गौतमस्वामी ने मनमें विचार किया-सत्य है,
॥७३१॥