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कल्पसूत्रे
सशब्दार्थे ॥७२२॥
गौतमस्वामिनः विलाप: केवलज्ञान
प्राप्तिश्च
ताव दूरे चिट्ठउ परं अंतसमए 'ममं दिदिओऽवि दूरे पक्खिवीअ । को अवराहो मए कओ जं एवं कयं। अहुणा को ममं गोयमगोयमेत्ति कहिय संबोहिस्सइ, कमहं पण्हं पुच्छिस्सामि, को मे हिययगयं पण्हं समाहिस्सइ । लोए मिच्छंधयारो पसरिस्सइ। तं को णं अवाकरिस्सइ। एवं विलवमाणे गोयमसामी मनंसि चिंतीअ सच्चं जं वीयरागा रागरहिया चेव हवति। जस्स नामं चेव वीयरागो से कंसि रागं करेज्जा ! एवं मुणिय ओहिं पउंजइ। ओहिणा भवकूवपाडिणं मोहकलियं वीयरागोबालंभरूवं नियावराहं जाणिय तं खामिय पच्छायावं करेइ अणुचिंतेइ य को मम ? अहं कस्स ? एगो एव अप्पा आगच्छइ गच्छइ, य न को वि तेणं सद्धिं आगच्छइ गच्छइ य।
॥७२२॥