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शक्रन्द्रक्रततीर्थकरजन्ममहोत्सवः
कल्पसूत्रे रइकरगपव्वए परिसाओणं जहा जीवाभिगमे आयरक्खा सामाणिय चउग्गुणा सशन्दार्थे सव्वेसिं जाणविमाणा सव्वेसिं जोयणसहस्सविच्छिण्णा उच्चत्तेणं सविमाण
प्पमाणा महिंदज्झया सव्वेसिं जोयणसाहस्सीया सक्कवज्जा मंदरे समोसरंती जाव पज्जुवासंति ॥१६॥ .... '१, भावार्थ-उस काल उस समय में ईशान नामक देवेन्द्र देवराजा हाथ में त्रिशूलधारण करनेवाला वृषभका वाहनवाला देवताओं का इन्द्र उत्तरार्ध लोक का अधिपति
अठाईस लाख विमानका स्वामी रज रहित वस्त्र धारण करने वाला यों जैसी शकेन्द्र की l वक्तव्यता कही थी वैसे ही सब वक्तव्यता यहां कहना। विशेष. में महाघोष घंटा बजाता ril है लघुपराक्रम नामक पादात्यनीक के अधिपति देव घंटा बजाता है पुष्पक नामक
विमान का वैक्रिय करता है दक्षिण दिशाके निर्यान मार्ग से उतरता है ईशान कोन रतिकर पर्वत पर ठहरता है और मेरुपर्वत पर जाता है यावत् पर्युपासना करता है ऐसे ही अच्युत
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