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कल्पसूत्रे - सशब्दार्थ
॥५९॥
जन्म
रगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे ॥१५॥
शक्रेन्द्रक्रत
तीर्थकरभावार्थ-फिर वह देवेन्द्र बहुत भवनपति वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक देव - देवियों से पखरा हुआ सब ऋद्धि द्युति यावत् नाद से उत्कृष्ट दिव्य देव गतिसे मेरू महोत्सवः ISIL पर्वत के पंडग वन में अभिषेक शिला के सिंहासन पास आता है वहां सिंहासन पर | भगवान् तीर्थंकर को पूर्वाभिमुखसे बैठाता हैं ॥१५॥ . मूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया मूलपाणी वस| भवाहणे मूरिंदे उत्तरड्ढलोगाहिवई अट्ठावीसई विमाणवाससयसहस्साहिबई
अरयंवरवत्थधरे एवं जहा सक्के इमं णाणत्तं महाघोसाघंटा लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई पुप्फओ विमाणकारी दक्खिणिल्ले णिज्जाणमग्गे उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ मंदरे समोसरिओ जाव पज्जुवासइ एवं अवसिट्ठा वि इंदा
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