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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥६७९॥ मलम-पसिढिल-पलंब-लोला, एगा मोसा अणेगरूवधुणा। सामाचारी + वर्णनम् । .. कुणइ पमाणि पमायं, संकिए गणणोवगं कुज्जा ॥२७॥ भावार्थ-जो साधु प्रतिलेख्यमान् वस्त्रको ढीला पकडता है, कोनों को लटकाये। रखता है, भूमिमें अथवा हाथों में उसे हलाता रहता है, बीचमें घसीटते हुये खेचता है और प्रमादवश हाथोंकी अंगुलियों की रेखाको स्पर्श करके गिनती करता है। यह प्रतिलेखना में दोष माने गये हैं उनका त्याग बतलाया गया है ॥२७॥ मूलम्-अणूणाइरित्त पडिलेहा, अविवच्चासा तहेव य । . पढमं पयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाणि ॥२८॥ भावार्थ-प्रतिलेखना निर्दिष्ट प्रमाणके अनुसार ही साधुको करनी चाहिये। न न्यून करनी चाहिये। और न अधिक करनी चाहिये । इसी प्रकार पुरुष विपर्यास, उपधि विपर्यासका भी परित्याग करना चाहिये । प्रथम पद के सिवाय शेष ७ भंग सदोष हैं ॥२८॥ ॥६७९॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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