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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥६५५॥
भगवच्छासनावध्यादि कथनम्
कर्म का उपार्जन-बंध करता है ? [गोयमा] हे गौतम ! [से जीवे] वह जीव [एगैतेणं पावाई कम्माइं] एकान्त रूप से पाप कर्मों का [जणयइ] उपार्जन करता है। [से केणट्रेणं] वह किस कारण से [भंते] हे भगवन् [एवं वुच्चइ] इस प्रकार से आप कहते हैं[गोयमा !] हे गौतम ! [से जीवे] वह जीव [मिच्छाभावपडिवन्ने] मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करके [अजीवं] अजीव को [जीवभावे] जीवभाव से [मन्निस्सइ] मानेगा [छण्हं जीवणिकायाणं] छ जीवनिकायों का [वह] वध [करिस्सइ] करेगा [मम मग्गस्स णं] मेरे मार्ग को [हीलणं] अवहेलना [कराविस्सइ] करावेगा [मम सासणस्स] मेरे शासन का [उदयं] उदय [णो करिस्सइ] नहीं करेगा [मए] मैंने [अत्थित्तं] अस्तित्व को [अस्थिवृत्तं] अस्ति ऐसा कहा है [नत्थित्तं] नास्तित्व को [नत्थिवुत्तं] नास्ति ऐसा कहा है [से जीवे] वह जीव [अत्थित्तं] अस्तित्व को [नत्थि वदिस्संति] नहीं है ऐसा कहेगा [नत्थित्तं] नास्ति भाव को [अत्थि वदिस्संति] अस्तिभाव से कहेगा [से तेण.
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