________________
शक्रेन्द्रक्रततीर्थकरजन्ममहोत्सवः
क पसत्रे ही अणुप्पयाहिणी करेमाणे २ पुब्धिलेणं तिसोवाणेणं दुरूहइ २ ता जाव सीहासशब्दार्थे
सणंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे एवं चेव सामाणिआवि उत्तरेणं तिसोवाणेणं ॥५०॥
। दुरूहित्ता पत्तेयं २ पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति अवसेसा देवा य देवीओ । य दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेण दुरूहित्ता तहेव जाव णिसीअंति ॥१२॥
भावार्थ-तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराजा यावत् हृष्टतुष्ट बनकर दिव्य जिनेंद्र के अभिगमन के योग्य सब अलंकार से विभूषित बनकर उत्तरवैक्रिय रूप करते हैं और आठ . अग्रमहिषियों व उनके परिवार नृत्यानीक गंधर्वानीकसहित विमानको प्रदक्षिणा करता । हुआ पूर्वके त्रिसोपानसे विमान पर चडकर पूर्वाभिमुख से सिंहासन पर बैठता है ऐसे ३. ही सामानिक देव उत्तर दिशा के पंक्तियों से चडकर अपने अपने भद्रासन पर बैठते हैं .. शेष देवता व देवियां दक्षिण दिशाके पंक्तियों से चडकर यावत् अपने २ भद्रासन
पर बैठते हैं ॥१२॥
॥५०॥