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वायुभूते:
निवारणम प्रव्रजन च
कल्पसूत्रे वायुभूति । तुम्हारे मन में यह सन्देह बैठा हुआ है कि-'जो शरीर है वही जीव हैं।। सशब्दार्थे शरीर से भिन्न जीव अलग नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि किसी भी प्रमाण से जीव | ॥५५१॥
की--प्रतीति नहीं होती। जैसे जलका बुद्बुद जलसे ही उत्पन्न होता ह और जलमें लीन हो जाता है, जल से अलग उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, इसी प्रकार जीव भी शरीर से उत्पन्न होता है और शरीर में ही वीलिन हो जाता है। अतः शरीर से भिन्न कोई जीव पदार्थ नहीं है जो मृत्यू के पश्चात् परलोक में जाय । विज्ञानघन ही इन पृथ्वी आदि भूतों से उत्पन्न होकर उन्हीं में लीन हो जाता है, यह वेद-वाक्य भी जीव और शरीर की एकता के विषय में प्रमाण है । तुम्हारे इस सन्देह का समाधान
इस प्रकार है-सब जीवों को अंशतः जीव प्रत्यक्ष होता ही है, क्योंकि जीव स्मृति M आदि अर्थात् स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा, जिगमिषा, आशंसा आदि गुणोंका प्रत्यक्षरूप
से ज्ञाता है। व जीव देह से और इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि जब व्याधि या शस्त्र |