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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५३७॥
अग्निभूतेः शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च
पंचसयसिस्ससहिओ पव्वइओ] इस प्रकार प्रभु के कथन से संशय दूर हो जाने पर हर्षित और संतुष्ट हुए अग्निभूति भी अपने पांचसो शिष्यों के साथ भगवान् के पास दीक्षित हो गये ॥१४॥
भावार्थ-इन्द्रभूति की दीक्षा के पश्चात् सब विद्याओं में निपुण अग्निभूति ब्राह्मणने इन्द्रभृति के समान विचार किया सच है, यह महावीर महा इन्द्रजालिया दिखाई देता है। उसने मेरे भाई इन्द्रभूति को भी छल लिया। अब में जाता हूं और असर्वज्ञ होने | पर भी अपने को सर्वज्ञ समझनेवाले उस मायावी को परास्त करके माया से ठगे हुए I अपने बन्धु इन्द्रभूति को वापिस लाता हूं। इस प्रकार विचार कर वह अग्निभूति । अपने पांचसौ शिष्यों के साथ, अभिमान सहित, भगवान् के समीप गये। भगवानने अग्निभूति का नाम लेकर तथा उनके हृदय में स्थित सन्देह को सूचित करते हुए, संबोधन किया और इस प्रकार कहा-'हे अग्निभूति ! तुम्हारे मन में कर्म के विषय में
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