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________________ कल्पसूत्रे सशन्दाय अग्निभूतेः शङ्का ॥५३५॥ निवारणम् प्रत्रजनं च जीवों की विचित्रता देखकर अनुमान से कर्म को जानते हैं [कम्मस्स विचित्तयाए चेव पाणीणं सुहदुहाइ भावा संपज्जंते] कर्म की विचित्रता से ही प्राणियों में सुखदुःख की अवस्था उत्पन्न होती है [जओ कोई जीवो राया हवइ] कोई जीव राजा होता ह [कोई आसा गओ वा तस्स वाहणो हवइ को वि पयाई, कोई छत्तधारगो हवइ] कोई हाथी अथवा कोई घोडा होकर उसका वाहन बनता है कोई पैदल चलता है कोई छत्र धारण करता है एवं कोई खुयखामो भिक्खागो होइ जो अहोरत्तं अडमाणो वि भिक्खं न लहइ] इसी प्रकार कोई भूख से दुर्बल होता हैं और दिनरात भटकता हुआ भी भीख नहीं पाता [जमगसमगं ववहरमाणार्ण पोयवणियाणं मज्झे एगो तरइ एगो समुद्घमि बुडइ] तथा एक ही समय में व्यापार करनेवाले नौका व्यापारियों में से एक सकुशल समुद्रपार हो जाता है और दूसरा समुद्र में ही डूब जाता है। [एयारि- | साणं कज्जाणं कारणं कम्मं चेव,] इन सब विचित्रकार्यों का कारण कर्म ही है; [नो णं 1॥५३५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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