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________________ कल्पसूत्रे सान्दार्थे ॥ ५३२॥ ५ संबंधो तहा, कम्मणो जीवेण सह । जहा य मुत्तेहि नाणाविहेहि मज्जेहि, ओसहेहि य अमुत्तस्स जीवस्स उवघाओ अणुग्गहो य हवंतो लोए दीसइ, तहेव अमुत्तस्स जीवस्स मुत्तेण कम्मुणा उवघाओ अणुग्गहो य मुणेयव्वो । अह य वेयपएस वि न कत्थइ कम्मुणो निसेहो, तेण कम्मं अस्थि त्ति सिद्धं । एवं पहुवयणेण संसयम्मि छिन्नम्मि समाणे हट्टतुट्ठो अग्गिभूई वि पंचसयसिस्ससहिओ पव्वइओ ॥१४॥ शब्दार्थ - [तए णं अग्गिभूईमाहणो सब्वविज्जापारगो ] इसके बाद समस्त विद्याओं में पारंगत अग्निभूति ब्राह्मणने [इंदभूइव्व चिंतेइ सच्च सो महं इंदजालिओ दीसइ) इन्द्रभूति की ही तरह विचार किया सचमुच वह तो बडा भारी इन्द्रजालिक दिखता है [अणेण मम भाया इन्द्रभूइ वंचिओ] इसने मेरे भाई इन्द्रभूति को ठग लिया है. अग्निभूतेः शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च ॥ ५३२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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