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इन्द्रभूतेः शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च
कल्पसूत्रे - ब्रह्मचर्य का पालन करते थे उन्हों ने देहाध्यास का त्याग कर दिया था, अथवा वे सशब्दार्थ शरीर के संस्कार (श्रृंगार) से रहित थे। विशिष्ट तपस्या से प्राप्त हुई विशाल ॥५२९॥
तेजोलेश्या नामकलब्धि उन्होंने शरीर में ही लीन (छीपा) कर रखी थी। चौदह पूर्वो के धारक थे। मति-श्रुत अवधि-मनःपर्यवज्ञान से युक्त थे। उनकी बुद्धि समस्त | अक्षरों में प्रवेश करने वाली थी। यह भगवान् से न अधिक दूर रहते और न अत्यन्त
समीप ही रहते थे। उचित स्थान पर रहते थे। वहां घुटने ऊपर करके तथा मस्तक नमाकर ध्यान रूपी कोष्ट को प्राप्त थे। किसी भी एक वस्तु में एकाग्रता पूर्वक चित्त | का स्थिर होना ध्यान कहलाता है। वे उसी ध्यान रूपी कोष्ठ (कोठी में) स्थित थे।
अर्थात् जैसे कोठी में रहा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं है, उसी प्रकार ध्यान करने से इन्द्रियों की तथा मन की वृत्तिबाहर नहीं जाती है आशय यह है कि इन्द्रभूति अनगार ने अपने चित्त की वृत्ति को नियंत्रित कर लिया था। सतरह प्रकार के संयम और
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