SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥५२५॥ भगवान की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की, आदक्षिणा प्रदक्षिणा करके वंदना नम- I इन्द्रभूतेः स्कार किया, वंदना नमस्कार करके इस प्रकार प्रभु से उन्होंने कहा हे भदन्त ! यह का शङ्का निवारणम् लोक दुःखो से जल रहा है, अर्थात् कषायाग्नि से यह लोक प्रदीप्त हो रहा है, यह प्रतिबोधश्चे लोक आदीप्त प्रदीप्त हो रहा है, जरा एवं मरण के दुःखो से परीषहों एवं उपसर्ग से हानि न हो ऐसा विचार कर के यदि में उसको बचालूं तो मेरी आत्मा परलोकमें हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप परंपरा से कल्याणरूप होगा। परलोक में साथ रहनेवाला होगा। तो हे देवानुप्रिय मैं चाहता हूं की आप मुझे प्रवाजित करें ऐसी मेरी प्रार्थना है। तब श्रमण भगवान् महावीरने 'यह इन्द्रभूति मेरा प्रथम गणघर होगा' इस प्रकार ज्ञान से देखकर पांचसो शिष्यो सहित इन्द्रभूति को अपने हाथसे दीक्षा प्रदान की उसके बाद इन्द्रभूति ॥ अनगार को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया, बेले-बेले निरन्तर यावज्जीव तपः कर्म से संयम से और अनशनादि बारह प्रकार की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरने ॥५२५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy