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शब्दार्थे ॥५२१॥
है: अन्यथा निर्विषय होने के कारण उसमें मिथ्यापन का प्रसंग हो जायगा । अतएव पृथ्वी आदि भूतों से कथंचित् उत्पन्न हो कर, बाद में आत्मा भी उन भूतों के नष्ट हो जाने पर, उस भूत विज्ञान घनरूप पर्याय से नष्ट हो जाता है । अथवा भूतों के अलग हो जाने पर सामान्य चैतन्य के रूप में स्थिर रहता है, अतः उसकी प्रेत्य संज्ञा नहीं है, अर्थात् प्राकृतिक घटादि विज्ञान की संज्ञा उसमें नहीं रहती है । इस से जीव है, यही मत सिद्ध होता है अन्तःकरण को चित कहते है चेतन के भाव को चैतन्य कहते हैं, अर्थात् संज्ञान का जो कर्त्ता हो वह चैतन्य है । विशिष्ट ज्ञान विज्ञान कहलाता है । चेष्टा संज्ञा कहलाती है। इन चित्त, चतन्य, विज्ञान और संज्ञा आदि लक्षणों से जीव का ज्ञान होता है । इससे जीव की सिद्धि होती है। जीवकी सिद्धि का दूसरा उपाय बतलाते हैं अगर जीव न हो तो पुण्य और पापका कर्ता जीव के अतिरिक्त दूसरा कौन होगा ?
इन्द्रभूतेः शङ्कानिवारणम् प्रतिवोधश्र
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