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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४९७॥ DCCIECES यज्ञवाटकं. परित्यज्या-- न्यत्र देवगमनात् । तत्रस्थितानामाश्चर्या दिक समूह को पराजित करनेवाले महान् मल्ल । हे अपने प्रकाण्ड पांडित्य के प्रभाव से प्रतिवादियों के अन्तःकरण में सदैव खटकनेवाले कांटे। हे प्रतिवादी रूपी पतंगों को भस्म करनेवाले जलते दीपक, अर्थात् प्रतिवादियों के यश रूपी शरीर का विनाश करनेवाले। हे वादिचक्रचूडामणि-सकलशास्त्रों में अर्थो और कलाओं में कुशलजनों में अग्रगण्य । हे विद्वज्जन-शिरोमणी । हे सकलवादियों के वाद को जीतने वाले। हे विद्या की अधिष्ठात्री देवता के कृपाभाजन । हे अन्य विद्वानों के गर्व की वृद्धि को विनष्ट करनेवाले। अर्थात् सब पण्डितों की पण्डिताई के गर्व को खर्च करनेवाले । इस प्रकार | पांचसौ शिष्यों द्वारा किये जाते यशोगान और जय-जयकार के साथ इन्द्रभूति भंग| वान् के पास पहुंचे। वहां पहुंच कर लोकोत्तर विभूति को और प्रभु के तेज को देख| कर चकित रह गये । सोचने लगे-यह क्या ? ॥११॥ ... मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे सीहसेणो राया सीलसेणा णाम वर्णनम् ॥४९७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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