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________________ सशब्दाथ कल्पसूत्रे [अहं णो कस्सवि साहज्ज पडिक्खिस्सामि] मैं किसी की सहायता की प्रतीक्षा नहीं यज्ञवाटकं परित्यज्याकरूंगा [किं अंधयारपगासे सुज्जो अण्णं पडिक्खइ ?] अंधकार का नाश करने में सूर्य न्यत्र ॥४८८॥ M को क्या किसी को प्रतीक्षा करनी होती है ? [अओ सिग्घमेव गच्छामि] अतएव मैं देवगमनात् तत्रस्थिताशीघ्र ही जाता हूं [एवं परिचिंतिय पोत्थयहत्थो कमंडलु दब्भासण पाणीहिं पीयंबरेहिं नामाश्चर्याजण्णोववीय विभूसिय कंधरोह] इस प्रकार कहकर और पुस्तक हाथ में लेकर पांचसौ दिकal शिष्यों के साथ प्रभु के निकट जाने को रवाना हुए। उनके शिष्य कमंडलु और दर्भ वर्णनम् का आसन हाथ में लिए हुए थे। पिताम्बर पहने हुए थे। उनका बाया कंधा यज्ञोपवीत से सुशोभित हो रहा था। वे अपने गुरु इन्द्रभूति का इस प्रकार यशोगान कर रहे थे। [हे सरस्सई कंठाभरण] हे सरस्वतीरूपी कंठाभरणवाले ! [हे वाइविजयलच्छीकेयण !] हे वादीविजय की लक्ष्मी के ध्वज ! [हे वाइमुहकबाडयंतणतालग !] हे वादियों के मुख रूपी द्वार को बंध करदेनेवाले ताले ! [हे वाइवारणविआरण पंचानन!] हे वादी in ॥४८८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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