SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४७१ ॥ एगारसमाहणा सयसयसिस्सपरिवारेण परिवुडा जन्नकम्मनिउणा तत्थ जणं कुणंति । तहा अण्णे वि तत्थ बहवे उवज्झाया गग्गहारिय कोसियपेल संडिल्ल पारासज्ज भरद्दाजवस्सिय सावण्णिय मेत्तेज्जांगिरस कासव कच्चायण दक्खायण सारख्वयायण सोणगायण नाडायण जातायणास्सायण दब्भायणचारायण कावियबोहियोवमन्नवा तेज्जपभिइओ मिलिया होज्जा ॥ ९ ॥ शब्दार्थ –[तेणं कालेणं तेणं समएणं तीए पावाए पुरीए ] उस काल और उस समय में पावापुरी में [एगस्स सोमिलाभिहस्स वंभणस्स जन्नवाडे जन्नकम्मंमि समागया] एक सोमिल नामक ब्राह्मण के यज्ञ के पाडे - महोल्ले में यज्ञ कर्म में आये हुए [ि जजुसामाथव्वाणं चउण्हं वेयाणं इतिहासपंचमाणं] यज्ञ-कर्म में आये हुए अंगों पांग सहित रहस्य सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इन चार वेदों के सोमिलाभिध ब्रह्मणस्य यज्ञवाटके समागता नेक ब्राह्मणनामानि ॥४७१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy